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कविता

मोर गॉंव कहॉं सोरियावत हे : मातर जागंय

बड़ा अटेलिहा* अहिरा छोकरा
दूध बिना नइ खावंय !
घाट पाट बीहर जंगल म
गाय अउ भैंस चरावंय !
भड़वा मन म दूध चुरोवंय
मरकन* दही जमावंय !
भिनसरहा ले चलय मथानी
ठेकवन* लेवना पावंय !
घी के बदला दूध ल अब तो
खोवा बर खौलावत हें !

चरवाही संग गाय भैंस के
रच्छा सुघर करे बर !
किसान कन्हानई कुल के देवता
पूजंय दुख हरे बर !
नवा खवावंय मातर जागंय
पुरखन ल फरियादंय !
गांव ठांव म सबके मंगल
ठाकुर देव ले मागंय !
बिन दइहान अब दुल्हादेव* के
खोड़हर* नइ पूजावत हें !

एकादशी देवारी धर के
कातिक तइहा आवय !
अंगना डेहरी तुलसी चौरा
म दीयना ओरियावंय !
रइया* सुमिरंय अउ गोर्रइया*
बस्ती के ओ मरी मसान
पुरखन के चौंसठ जोगनी ल
सुमिरंय, कहंय करौ कइलान !
घर अंगना का छन* म तइहा कस
अब नइ खउरावत* हें!

गोबर के सुखधना* किसानन
के कोठी म मारंय !
अउ सुख सौंपत खातिर उंकर
सुघ्घंर शबद उचारंय !
गर म सुहई* बांध गाय के
पइयां परंय जोहारंय !
अन-धन बाढय़ दूध बियारी
मालिक करव गोहारंय !
आज सुहई संग नेह के
लरी घलव मुरझावत हें !

सरधा जबर रहंय तइहा
अउ सिरतो म पुरसारथ !
पन अइसन कुछ बात घलव
जे लागंय निचट अकारथ !
बात बात म लाठी पटकंय
मुड़ अउ माथा फोरंय !
अपने जांघ उघारंय अउ
फदिहत कर दांत निपोरंय !
बाहिर ले उज्‍जर झलके बर
अग भीतर फरियावत हें!

ठौर ठौर म देखव तो अब
राउत नाचा होथे !
कला समुंद म लोक के जानव
कइ बूंद अपन समोथें !
साजू बाजू कलगी पगड़ी
घुंघरू मुंदरी माला !
फरी हाथ संग दू ठन लाठी
ऊपर फरसी भाला !
पुरखन के बाना ल धर के
जुग संग कदम मिलावत हें !

चमक धमक अउ सिरिफ देखावा
दिन दिन बाढ़त जाथे !
गड़वा बाजा अहिरा बाना
दोहा घलव नदाथें !
गय ठाकुर के ठकुरी जानव
अउ अहिरन के अब तो मान !
उतियाइल* मन मुखिया होगंय
धरसा तक म बोइन धान !
सरोकार सब लोगन मन के
नदिया जनव सरावत* हें !

धरती पिरथी पुरखा पुरबज
मन के भाखा बानी!
झुमरंय नाचंय अउ बजावंय
गावत रहंय जुबानी !
अतमा सगा परतमा बइठे
जुरके सुनय सुनावंय!
ये ओड़हर* म अंतस के सब
इरखा डाह बुझावंय!
अब पहुना के आवब कलकुत*
जावब जबर सुहावत हे!