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व्यंग्य

मोर सुआरी परान पियारी

”संसार के सब दाई-ददा हा बहू, बेटा, नाती -नतरा के सुख भोगे के सपना देखथे। ओ मन रात -दिन इही संसो म बुड़े रहिथे कि मोर औलाद ल कांही दु:ख-तकलीफ झन होवय। बने-बने कमावयं खावयं। बने ओनहा पहिरे। बने रद्दा म रेंगय। दुनिया म हमर नांव जगावंय। कहिके अपन मन भूख-पियास ल सहिके औलाद के मुंह मं चारा डारथें। औलाद कपूत निकल जथे तेन ल कहूं का करही। सियान मन गुनथें मरे के पहिली नाती-नतुरा के मुंह देख लेतेंव कहिके। मोर दाई ह घलों अइसने सपना देखय। दाई ल बहू के वरदान तो मिलगे। कोनों जनम म बने करतब करे रिहिस होही तेखर सेती ओला ये जनम म दहेजवाली बहू मिलगे।”
मोर परान पिआरी गोइसईन ह जब ले मोर घर म अपन पबरीत चरन ल मड़ईस, तब ले मोर घर के दरिद्री देंवता ह परागेय हे। पहिली रात-दिन कमावंव तभो ले कंगालीह छाएच राहाय। घर म एको दाना चऊर-दार नई राहाय। मुसुवा भुखन मरय। त का करय मोर कपड़ा-ओनहा, कथरी-गोदरी मन ल चुन डारय। घुस्सा म जब मैं मारे बर कुदावंव त परवा-छानही म चघ के कान अऊ मुंह ल मकटकावत मोला चिढ़ावंय।
अब तो आगू-आगू ले सरी जीनिस मन माढ़े रहिथे। ओला देख-देख के न मोला भूख लागय न पियास। लोगन के कहेना हे कि कोठी म एक दाना अढिया नई रेहे ले भूखे-भूख लागथे। कहिथे भाग मानी मन ल बने सुआरी मिलथे। सबो ल नई मिलय। सिरतोन मैं भागमानी आंव। ओ मन बने सुआरी कब्भू नई हो सकय जौंन मन अपन मईके ले जम्मों घर-गिरस्ती के जीनिस जइसे-टीवी, रेडिया, पलंग-सुपेती, सोफा, मिक्सी, फीरीज, कुलर, अलमारी, गद्दा-तकिया, बरतन-बासन नई लानय। ऐखर अलावा नगदी पईसा ला दुलहा डौका के ददा के अऊ खुद दुलहा के खीसा म डार देथे। तौने ससुर तो समझदार कहाथे। मोला तो मुंह मंगा दिस मोर ससुर जी हा। कहिस- ‘चला बता बेटा तोला का होना कहिके- मैं हा नहीं, मोला कांही नई चाही कहेंव तभो ले कहिस नहीं-नहीं लजा झन का चाही? मैं कलेचुप मुड़ ल गडिया के मड़वा तरि बइठे राहांव। त कहिस- ‘अरे तोर घुमें-घामे बर कोनों मोटर गाड़ी तो लगबे करही न कहिके अपन खीसा ले चार चक्का वाला गाड़ी के कुची ल मोर हात म धरादिस। मोर जम्मों लाग-परवार अऊ संगी-साथी मन मोर डाहार गुर्री-गुर्री देखे लागिन। मैं ऊंखर-गुर्री-गुर्री देखई म देखेंव ऊंखर आंखी ह काहात राहाय अरे जोजवा टूरा कुची ल झोंक नई लेवस। बिन मांगे मोती मिलय मांगे मिले न भीख जब अपन होके देवत हे त झोंक ले। आवत लछमी ल लात नई मारना चाही।’
मैं का करंव झोंक लेंव। हमर ससुर कहिस अऊ कभू पईसा-कउड़ी या कुछू भी जीनिस के जरूरत परही त बिगन लजाय मांग लेबे। मैं सुन के गदगद होगेंव। जब-जब मोर सुआरी अपन ददा घर जाथे तब-तब कांही कुछ लानबे करथे। कुल मिलाके मोर गोसइन ह संवहत लछमी ये। तेखरे सेती ओखर लाख बुरई ह माफी हे। ओखर आय ले मोर घर के ओखर जम्मों कांटा मन घर छोंड़ के अंते भाग गे। घर म अब शांतिच शांति हे। जब ओखर कांटा मन राहाय त आय दिन घर म हरहर-कटकट माते राहाय। मोर सुआरी ल ओमन फूटे आंखी नई भावय।
जब मैं ओ मन ल लहू-पछिना के कमई ल लान-लान के खवावत रेहेंव त बने काहांय। सुआरी के आय ले परागे अऊ गांव भर म ओखर चारी-चुगली करत रहिथे। जब देखों तब पटंतर देवत रहिथे। कहिथे- बहू के आये ले ये टूरा ह सुआरी के गुलाम बनगे, दाई-ददा, भाई-बहिनी ल पुछय नहीं। येला मुड़ढक्की बैमारी ह धर लेय हे। कभू तो पुछतिस खाये-पीये हौव ते नहीं, तुंहर देह-पांव बने हे ते नहीं, तुमन ल कांही दु:ख-पीरा तो नई हे कहिके। मनमाड़े दाईज (दहेज) पाये हे, मेंछरावत हे चंडाल ह। लखपति ससुरार ह कब तक ले तोर संग देही तेन ल जीयत रहिबो ते देख लेबो। घमंड होगेय हे- घमंड येखर सुआरी तो सोज मुंह गोठियावय नहीं। ‘करेला उप्पर ले लीम चघा।’

काबर नई बखानहीं- ‘बेटा च मन तो दाई-ददा के सहारा होंथे। उहू ल पराये घर ले आय बहू ह अपन मुठा म धर लेथे त दाई-ददा के छाती म छूरी तो चलबे करही। ऊंखर सरि सपना ह टूट जथे। का इही दिन बर दाई-ददा ह लईका ल बिआये हे, उनला पढ़ाथे-लिखाथें, लाईक बनाथें, अऊ जब लईका मन के पारी आथे दाई-ददा के सेवा करे के त अलगिया जथे।’
”संसार के सब दाई-ददा हा बहू बेटा, नाती -नतरा के सुख भोगे के सपना देखथें। ओ मन रात- दिन इही संसो म बुड़े रहिथे कि मोर औलाद ल कांही दुख तकलीफ झन होवय। बने-बने कमावय खावय। बने ओनहा पहिरे। बने रद्दा म रेंगय। दुनिया म हमर नांव जगावंय। कहिके अपन मन भूख पियास ल सहिके औलाद के मुंह म चारा डारथें। औलाद कपूत निकल जथे तेन ल कहूं का करही। सियान मन गुनथें मरे के पहिली नाती-नतुरा के मुंह देख लेतेंव कहिके। मोर दाई ह घलों अइसने सपना देखय। दाई ल बहु के वरदान तो मिलगे। ेकोनों जनम म बने करतब करे रिहिस होही तेखर सेती ओला ये जनम म दहेजवाली बहू मिलगे। ओ ह बहू नहीं संवहत देबी लछमी ये।”

सदा दिन घर म अंधियारी घपटे राहाय तौंन घर हा आज टिवलईट म जगमग-जगमग करत हे। मैं तो गुनथंव जब मोर बुढ़ापा आही त मैं एखर ऊपर एक ठन सोध ग्रंथ लिखिहौंव ताकि अवइया पीढ़ी ल ये बिसे म कांही गियान मिलय।

गोसईन मोला दाई के परम भगत जान के ओला बहुत दुख लागिस। अब ओ ह रोज बिगन कारन के कारन मुंह-कान ल तोमरा सहिक फूलों के बइठे रहिथे। कांही कहिबे ते चांय ले चिचिआय लगथे। मैं तो ओखर अंतस के बात ल जानथंव। महू कच्चा गोली नई खेले हांव। ओला खुस करे बर केऊ ठन उपाय जानथंव। दाई-ददा मन बिआये हे तेखर सेती लईका ऊपर ऊंखर पहिली हक बनथे। फेर सुआरी मन सात भांवर किंदरे रहिथे, तेखर सेती सात जनम के संगवारी समझ के गोसईया मन के बंधना म बंधाये रहिथे। जब ऊंखर मन होथे तब गोसइया मन ल अपन अंगरी म नचावत रहिथे।

गोसईन के गुलामी करई सब गोसईया मन के जनम सिध्द अधिकार होथे। जौन गोसईया मन गोसईन के गुलामी नई कर सकय ओ मन इनकलाबी हो के मारे जाथे। अऊ फेर गोसईन के गुलाम कोन नई हे? ऊंखर गुलामी करे म जौंन मंजा हे ओ हलुआ-पुड़ी म नई हे। इतिहास गवाही हे जौन जोन मन सुआरी के गुलामी करीन ओ शलाका पुरुस सूरूज सहिक आज ले चमकत हे। तंहुला मोर गोठ म बिसवास नई होही ते किरपा कर के आईना के आधु म ठाढ़ हो जावव।

-विट्ठल राम साहू ‘निश्चल’
मौंवहारी भाठा
महासमुन्द