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कहानी

मोला कभू पति झन मिलय – कहिनी

धान कोचिया राधे हर हुत करात अइस- सदानंद ठेलहा हस का रे? चल खातुगोदाम मेर मेटाडोर खड़े हे। विसउहा तेली के धान ल भरना हे। कइसे सुस्त दिखत हस रे। अल्लर- अल्लर। चल जल्दी। सुरगी म मार लेबे एकाध पउवा। पउवा के गोठ सुन के सदानंद के मुंहुं पंछागे। एक्के भाखा म टुंग ले उठगे।’
एसो के बइसाख म मंगली ह अठरा बछर के होगे। बिसराम अउ सोनारिन ल मंगली कस सुघ्घर बेटी पाए ले आन असन जादा सगा-सोदर देखे बर नइ लागिस। बड़ सुंदर रूपस राहै मंगली हर।
मंगली के लगिन फरिहइस। अकती के भांवर परिस। मंडवा भीतरी ले बिदा होइस। अहिबरन नवागांव के अर्जुन्दा ले लगे बोरगहन म ससरार आइस मइके परवार के मन गोठियाय- ‘मंगली ल बने ससरार मिलिस। सास अउ ससुर। संघरा बिहाव होय ले ननंद घला अपन ससरार चल दिस। ननंद-देवर के झंझट ले दूरबाहिर। अपन कमा, अपन खा। सास-ससुर के कतिक दिन के जिनगी गेये ले ऊंखर अपन घर अपन दुआर। दमांद तको बने हे बिचारा हा। बने ऊंच पूर। थोरिक सांवला हे ते का होइस, सुन्दर हे। सुन्दर नाम हे सदानंद।’
ससरार म घलो अपन सुघर बेवहार ले मइके कस मया मंगली ल मिलन लागिस। घर-परवार म रमगे मंगली हा। घर-दुवार अउ खेती-बाड़ी सबो काम ल करे लागिस।
समै बितन लागै। का होईस, के सदानंद के मति हरगे। पीना-खाना सुरू कर दिस। गांव म सबला बड़ा ऊटपुटांग लागै। सदानंद असन सुधवा लइका कइसे बिगड़गे। बिहने आठ बजे उठै। मन लगे त काम म जाय, नहिं ते खोर-गली म घूमघाम के दिन बितावै। गांव वाले मन सोचै ‘अरे का होगे सदानंद ला। बिहाव के पहिली तो बने रिहिस। बने काम-बुता करै। येला अब तो अउ बने ढंग ले काम बुता म लग जाना चाही।’ कोनो-कोनो मन तरिया-नंदिया म गोठियावयं- ‘जब ले रमेसर दाऊ के ट्रेक्टर म काम करे के सुरू करे हे तबले येखर पीना-खाना सुरू होय हे। वो दाऊ घला ओसने हे ना, पिया खवा के बिगाड़ दिस।’ देखते-देखत सदानंद अतेक अलाल होगे कि एकड़भर के खेती ल परिया पार डारिस। बाप मांधो के कहना, ओखर बर तो काय ए। थकगे बिचारा ह समझात-समझात। महतारी चैती के घलो एक नइ सुनै। उही ल डरवा देय। दाई-ददा के भाखा ल कान नइ देवत सदानंद ल मंगली हर कभु-कभु समझाय के उधिम करै- ‘तैं काबर अइसन करत होबे अभी तको समै हे। सुधर जा पहिली तो अइसन नइ करत रहेस। तोला बने-बने जान के मोर दाई-ददा हर मोला तोर सन बिहादिस। हमर सियानमन बड़ा सिधवा हे। जनम दे के तोला पाल-पोस दीन। बाढ ग़ेस। बिचारी-बिचारामन तोला एक ले दू कर दीन अउ भगवान के किरपा ले हमूमन दू ले तीन होवत हन।’ तिरछा मुस्कुरात कथे- ‘अब हमला अवइया के खियाल रखना हे।’ मंगली के गोठ ल सदानंद एक कान ले सुन के दूसर कान ले फेंकै। मंगली कइते राहै- ‘सुनत हस, न हीं। मय कोई गलत काहत हंव त बता। अभी तो हमर खाय-कमाय के दिन हे। सुख सोहर के दिन हे हमर।’ मंगली के गोठ ल सुन के सदानंद तनतनागे- ‘तो बुध ल तोरे मेर राख मय कहिं करंव, चाहे झन करंव, तोला काय करना हे। तोला कमाय ल भाथे ते कमा, नहिं ते जा सुत जा लात दे के। अउ नहिं तोर मुख ल टार, जा मइके सिरा।’ सदानंद के गोठ मंगली ल थपरा के मार ले जादा सजोर लागिस। कभू सोंचे नहिं रिहिस कि अपने आदमी के धरहा बानी कान ततेरहीं। कलेचुप दबक गे मुनुबिलई कस। अब का गोठ करय अउ का नइ करय। समझ ले बाहिर। जरमनी गंजी ल धरिस अउ तरिया निकलगे।
अब ठेलहा राम सदानंद डुंड़ियाभट्ठी जाय बर सोंचत राहै तइसने मा धान कोचिया राधे हर हुत करात अइस- सदानंद ठेलहा हस का रे? चल खातुगोदाम मेर मेटाडोर खड़े हे। विसउहा तेली के धान ल भरना हे। कइसे सुस्त दिखत हस रे। अल्लर- अल्लर। चल जल्दी। सुरगी म मार लेबे एकाध पउवा। पउवा के गोठ सुन के सदानंद के मुंहुं पंछागे। एक्के भाखा म टुंग ले उठगे। काम-धाम म ठिकाना नइ परै, सदानंद के बिगारी काम जादा राहै। अउ बनी-भुती मंगली के बांटा म परे राहै।
दुए चार साल के गुजरे ले सदानंद एक नंबर के मंदहा होगे। सइकिल ल बेंच डारिस। घड़ी ल भट्ठी मेर हेरवा डारिस। दइज के बरतन भाड़ा ल खसकादिस। बजरेच भटकगे सदानंद। जेन दिन वोला पिये बर नइ मिलै तेन दिन लात मार के कोठी म चढ़के धान हेरै। अउ अवने-पवने दाम मं बेंच देवै। बिगड़े बेटा के चिंता-फिंकर म मांधो अउ चैती चर चर, छै-छै महीना के आड़ म दूनों के दूनों सिरागें। बचगे बिचारी मंगली हर। अब का करै, कइसे करै वोला कुछुच समझ नई आय। का-का अउ कतिक गोठ ल मइके जा के सोरियाथिस। चेत हरागे ओखर मति छरियागे। अउ ते अउ तब अपन तकदीर ल सरापत धार-धार रोवै। जब धोवय चंउर आदमी के मारे नइ बांचै।
सबो गांव सांही, इंहचो घर बिगारूक घलो राहै, काहै- ‘सदानंद तुंहर घर के बहू के अउ कहिं नइ आत हावै। अउ ले आनथेस नहिं जी।’ कोन्हों मन काहै- ‘भइगे या सदानंद भवजी के तो अउ कुछु नइ दिखत हे, अउ नवा भवजी नइ लानतेस।’ सगाबती ल तीस साल के उमर म तीन ससरार होगे राहै। जिहां गीस तिंहा दू-दू, तीन-तीन बछर रिहिस। भगवाने मालिक, का होय अउ का नइ होय। ससरार म नइ टिकै। पर तीनों जगा एक-एक ठन लइका छोड़िस। लंदरे-फंदरे ताय ओखर। तिसरइया ससरार म गांव के एक झन आन जात के कुंआरा टुरा सन भाग गे रिहिस अउ इही कोती ले घूम फिर के टुरा ल छोड़छाड़ के फेर मइके म पहिदगै। अब ये बखत सदानंद ल फांस डारिस। सुघर जिनगी के रद्दा भटके सदानंद सगाबती के बजरहा मया के फांदा म अरझगै। दूनौं के मिलई-जुलई सुरू होगे। लुका-चोरी अब दिनदहाड़े होगै।
बिगड़े सदानंद ल मंगली बरजै, समझावै अउ बखानै घलो, फेर सदानंद के कान म जुंआ नइ रेंगै। पिअई-खवई अउ बाढ ग़े। लिखरी-लिखरी बात म मंगली ल मारय पिटै। जिहीं पाय तिहीं मेर पी खा के परे राहै। मुरदा अस ओखर दू स्थिति हो जाय। कपड़ा लत्ता के ठिकाना नइ राहै। हाग-मूत डरै। सदानंद के अतेक बिगड़े दूस्थिति होय के मंगली सदानंद ल नइ तियागिस। अगिनदेव के सात फेरा के असर अउ लइका के भविष्य के चिंता म लपटाय मंगली ल लोगन सदानंद ल छोड़ेबर कान भरै, पर मंगली एक कान नई धरिस। सदानंद ह अइसे होगे राहै कि सगाबती घर खाय-पियय। दिन म घलो ऊंखरे घर सुत जाय। लड़भिड़-लड़भिड़ करत घर आय। रात-बिकाल के मंगली वोला लानै। जेसने पाय तेसने मंगली ल काहय। मारै-पिटै तभो ले कइसनो कर के डिरोठी म लानै। देखत-देखत परसा फूल कस मंगली के दहकत चेहरा माघ-फागुन महीना के निकले के पहिले मुरझावत झरगै। पेंदी घिसाय पनहीं पहिरे कांटा-खुटी रद्दा रेंगत मंगली ल जिनगी पहार लागै ले धर लीस।
आज तो रात नौ बजगे। दस- साढ़े दस होगे, तभो ले सदानंद के दउहा नइहे। राधिका खा के सुतगे। अबक आहि तबक आही कहिके रद्दा देखत राहै। जी कउवागै मंगली के। खोर के कपाट ल पेले म हिट जाय तइसे संखरी ल अरझादिस। राधिका संग एक तिर म ढलगिस, फेर काहां नींद परही। न दिमाक शांत, न दिल म चेन। उठ-उठ के बइठै, खोर के कपाट ल झांक-झांक के देखै। सुसकत-सुसकत आदमी ल अउ सगाबती तको बखानै। उरहा नींद परगे घुप्प ले। अउ परिस त बनेच परिस, बिहनिया खुलिस। देखिस सदानंद कतेक बेर के आके दोल्गा खटिया म रेहे राहै। खोर्रा एक गोड़ अउ एक हाथ भुइंया म ओरमे राहै। चद्दर म तोपाय मुंडी गोड़तरिया खुरा म माढ़े राहै। ‘कतेक बेर आयेस, बेरा ल नइ जानस, अतिक वो दुखाही के मोहनी लगे हे तोला’, कुरबुरात मंगली सदानंद के मुड़ी के चद्दर ल खिंचीस। आंखी नेटरे सदानंद के मुंहुं के गजरा ल देख के मंगली के अक्का-बक्का बंद होगे। आंखी बोटबोटाय मंगली सदानंद ल हलान-डुलान लागिस, फेर सदानंद नइ उठिस। एक सब्द नइ निकलिस। मंगली के मुंह ले, बस दूनों आंखी ले आंसू के धार लामगै। बाप ल खटिया म परे अउ महतारी के फिजे आंखी ल देख राधिक सब समझगै। बोम फाड़ के रो डारिस। राधिका के रोवई सुन के पास-परोस के मन आइन। गांव भर सेकलागै। आनी-बानी के गोठ होवन लागै। मुंह म हांवला बोहे एकझन मोटयारी कुंआरी नोनी घलो आइस नजर ओखर सिरिफ मंगली ऊपर परिस। कोठ म टंगाय संकर भगवान के फोटू ल निहारत कथै- ‘ हे महादेव, अगर ये सदानंद हर पति आय, त तो मोला कभू पति झन मिलै। जिनगी भर मोला कुआंरी राखौ।’
टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’
शिक्षक, सुरडोंगर
जिला-दुर्ग

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