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कविता

राज्योत्सव मेला

अँधा लंगड़ा बड़े मितानी
सुने हो हौ तुम कहानी
कहूँ जनम के दुनो संगवारी
हो है लाग मानी
भीख मांग के करे गुजारा
उमन दुनो परानी
इक दुसर संग मेला घुमात
काट दईंन जिनगानी
लंगड़ा के रहे नाम बंशी
अँधा के गंगा राम
धरम धाम के नाम ला लेके
कर आइन चारो धाम
राजिम जाके राजीव लोचन
कर आइन परनाम
रायपुर तीर मा डारिन डेरा
कारन लगिन अराम
वही बखत राज्योत्सव मेला के
चले रहे बड नाम
मेला घुमे के सउक मा
बंशी के होगे नींद हराम
लंगड़ा कहे राज्योत्सव मेला
चल तोला देखातेव
आनी बानी के खई ख़जेना
चल तोला खवातेंव
किसम किसम के गाना बजाना
चल तोला सुनातेंव
झुमा झटकी के नाचा गाना
चल तोला नचवातेंव
चकरी झुलना हवाई झुलना
चल तोला झुलातेंव
लईका मन के छुक छुक रेल मा
चल तोला बैठातेंव
अइसन कस राज्वोत्सव मेला
कभू नहीं जा पाएँन
अभी कहूँ तोर संग मिल जाहे
चल ओला भी देख आयेन
अँधा कहे मै देखिहों का
मैं दुनो आखी के अँधा
यिहें आके बिसरागेहों मैं
भीख मांगे के मोर धंधा
चल आजा बइठ जा मोर खान्द मा
मोर नरी के फंदा
बड़े फज़र ले मैं उठ जाथों
तैं रहिथस उस्निन्दा
छत्तीसगढ़ महतारी के
रखले मर्यादा जिंदा
भीख मांगे मा हो जाही
धनही दाई शर्मिंदा
जियत मनखे के बोझा ला ढोवत
खान्द हा मोर पीरा गे
अऊ कतेक ले किन्जरबे तैहा
जांगर मोर सिरागे
हमर असन निःशक्त जन के
सरकार ला सुधि आ गे
अपन पांव मा हो जा खड़ा तै
साभिमान जगा गे
श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर , दुर्ग

3 replies on “राज्योत्सव मेला”

आपकी कविता -राज्योत्सव मेला पढ़ी.रचना बहुत सुंदर बनी है.पहली बार अंधे की व्यथा को उकेरा गया है.भीख मांगने की सामाजिक बुराई पर धनही दाई का शर्मिंदा होना ,भिखारी का स्वाभिमान जागना,अपने पैरों पर खड़े होने की बात,शासन द्वारा नि:शक्त जनों की सुधि लेना , निस्संदेह ही रचना की श्रेष्ठता को दर्शाता है.गंगाराम और बंसी ने प्राथमिक शाला के दिनों की और बाल-भारती की मीठी -सी याद जगा दी.,राज्योत्सव तथा स्थापना-दिवस की बधाई.
अरुण कुमार निगम,जबलपुर

aapki kavita nishchay hi school dino ki bal-bharti ki yaad dilati hai lekin aapne kavita ke ek dusre pahlu ko samne laya hai jis par shayad humara dhyan nahi jata….

aapki kavita nishchay hi school dino ki bal-bharti ki yaad dilati hai lekin aapne kavita ke ek dusre pahlu ko samne laya hai jis par shayad humara dhyan nahi jata….

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