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कहानी

लछनी काकी

सोवा परे के बेरा हो गे रहय फेर सुते कोनों नइ रहय, जइसे ककरो अगोरा म बइठे होवंय। संपत, मुसवा, नानुक अउ एक दु झन जउन मन खुद ल गांव के सियान मानंय, घंटा दु घंटा ले अघात सोंच विचार करिन अउ कोतवल ल हाका पारे के आडर कर दिन। संपत अउ मुसवा ,गांव के fभंयफोर सियान आवंय। इंखर बिना न ककरो नियाव होवय न गांव म बइसका बइठे। संपत ह ता थोडिक़-बहुत पढ़े घला हे, मुसवा तो काला अक्षर भंइस बराबर हेे। फेर गांव के मनखे मन ल बांध के कइसे रखना हे, इंखर ले बने अउ कोन जानही ? इंखर खाल्हे म जेकर हाथ चपका गे वो अउ उबर नइ सकय। न वोकर धन बच सकय न इज्जत। अउ नानुक आवय इंखर मन के मुंहलगा। जुटहा बरोबर इंखरे पीछू-पीछू लुटलुटावत रहिथे।
गांव भर म हांका पर गे। लोगन इही हांका के अगोरा करत रहंय। गांव खलक उजर गे। अटल चंवरा म सकला गे बइसका। कभू नइ आवय तउनों मन आय रहंय। बइसका काबर सकलाय हे, सबो जानत हें, फेर पूछब म कोनों नइ जानंय।
दू दिन हो गे, गांव म सुनगुन-सुनगुन एकेच गोठ होवत रहय। खुल के हंसना गोठियाना नोहर हो गे रहय कि जइसे कर्फू लगे होय। फुलबासन ल खटिया धरे महिना भर होवत हे। हफ्ता दु हफ्ता संपत अउ मुसवा के दवा-गोली, फूंका-झारा चलिस। अब झोला डाक्टर के सूजी पानी चलत हे। ककरो नइ लहत हे। अतराब के बइगा-गुनिया मन घला थर खा गें। सबो झन एके बात कहत हें, येला बाहिरी हवा लगे हे, कोनो टोनही येला चुहकत हे।
कटकटाय बइसका बइठे हे। एकदम चुप। सब कोती सन्नाटा छाय हे। गांव के कुकुर मन डरडरान कस कुंकवात रहय। संपत महराज ह कोतवाल ल पूछिस – ‘‘कइसे जी कोतवाल, सब घर के सियान मन आ गें?’’
कोतवाल ह गांव भर के आदमी मन के नाव टीप-टीप के हाजिरी लिस। सब आय रहंय।
संपत महराज ह फेर किहिस – ‘‘बइसका के नियम ल सब जानत हव। जउन अपन घर के सियान आय, विही बोल सकथे। जउन ल बोले बर केहे जाही, उही बोलही। कोनो ल बोलना होही त आडर ले के बोलहीं। बइठ के बोलहीं, धिरलगहा बोलहीं …………। सोवा परती आज काकर घर गाज गिर गे, जउन बइसका बलाय हे, बोलय।’’
सुंदरू हाथ जोर के खड़ा हो गे। किहिस – ‘‘पंच परमेसर के पांव परत हंव। भइया हो, मोरे घर गाज गिरे हे। ये बइसका ल मिहीं बलाय हंव।’’
नानुक किहिस – ‘‘का बात ए, बने फोर-फोर के बता। गांव म सब एक दुसर के मुंह देख के बसे रहिथें। एक झन के दुख-पीरा गांव भर के दुख-पीरा आय। आज तोर घर समस्या आय हे, कल हमरो घर आ सकथे।’’
सुंदरू – ‘‘भइया हो ! गांव भर जानत हव, महिना भर हो गे, मोर घरवाली ल सुते। खटिया के खटिया म पचत हे। एक ठन बीमारी होतिस तेला बतातेंव। डाक्टर-बइद कर-कर के हार गेंव। बइगा-गुनिया घला लहत नइ हे। गरीब आदमी, मोर तो चारों खूंट अंधियारे अंधियार दिखत हे। अब तुंहरे सहारा हे।’’
सुंदरू के बाई फुलबासन ल भला कोन नइ जानय ? गांव ते गांव, अतराब के मन घला वोला जानथें। रंग-रूप अउ सुंदरता म वोकर कोई जोड़ नइ हे। फेर चाल म कीरा परे हे। बोइर जतका मीठ होथे, वोतका वोमा कीरा घला परथे। नानुक ह बात के रद्दा ल चंतवारत कहिथे – ‘‘आदमी जनम धरे हन, जर-बुखार, बिमारी-हारी लगेच रहिथे। पंचायत ह एमा का करही ? अउ कोनों बात होही ते बने फोर के बता। कोन डाक्टर के इलाज चलत हे? कोन बइगा के तेला-बाती चलत हे? वो मन का बीमारी बतावत हें?’’
सुंदरू – ‘‘बीमारिच भर होतिस ते सक घला जातेंव भइया हो। इहां तो रोज-रोज बइरासू धरई के मारे मर गेन। बड़े -बड़े बइगा-गुनिया मन घला थर खा गे हें। चोवा डाक्टर ल पूछ लव। हमर तो विही ह सदा दिन के डाक्टर आय। मुसवा भइया अउ संपत महराज ल पूछ लव, वहू मन तो गांव के डाक्टरेच आवंय।’’
नानुक ह तरवा धर लिस किहिस – ‘‘का कहिथस ! बइरासू ? हे भगवान ! फेर यहा का चरित्तर सुरू हो गे हमर गांव म। ….. कोन ल बइरासू धरिस ? कोन-कोन झारइया-फुंकइया, अउ कोन आय बइरासू धराने वाला, एक-एक ठन बात ल बने फरिया-फरिया के बता। बाबू रे ! बात छोट-मोट नो हे। बने ठोसलगहा सबूत होही तब तंय बात ल लमा। गय तइहा के जुग, जब कोनों ल टोनही-टोनहा कहि देवंय। अब तो कानून हे, पुलिस हे, कोट-कछेरी हे।’’
सुंदरू – ‘‘मोर बाई फुलबासन ल बइरासू धरथे भइया हो। मुसवा भइया अउ संपत महराज ह झाड़-फूंक करइया आवंय। गांव के आधा आदमी ये तमासा ल देखे-सुने हे। आन गांव के बड़े-बड़े बइगा मन घला थर्रा गे हें। आज उतरही, काली फेर झपा जाही। जेकर ऊपर आथे, विही ह भोगथे, विही ह जानथे।’’
नानुक – ‘‘बइरासू धरइया के नाम बफरत होही ते बता वहू ल।’’
सुंदरू – ‘‘सब सुन डारे हें भइया। मुसवा भइया अउ संपत महराज के सामने के बात आय। चार झन के आगू के बात आय। लछनिच के नाम रोज-रोज आथे।’’
नानुक – ‘‘कोन लछनी ? बने चिन्हारू करके बता।’’
सुंदरू – ‘‘हमर घर के आगू म वोकर घर हे। घना मंडल के घरवाली आय। …………मोर बाई ल वोकर ले बंचा लेव ददा हो, मंय अब तुंहर सरन म परे हंव।’’
कांटो ते खून नहीं। घड़ी भर बर सन्नाटा पसर गे। ककरो मुंह ले बक नइ फूटय। घना मंडल ठाड़े ठाड़ सुखा गे। लदलद-लदलद कंपई सुरू हो गे।
नानुक कहिथे – ‘‘मोला जतका पूछना रिहिस, पूछ डारेंव। समस्या सब के सामने हे। सुंदरू के समस्या हम सब के समस्या आवय। आज वोकर ऊपर आय हे कल हमरो ऊपर आ सकथे। जुर-मिल बने बिचार करव अउ कोनो उपाय खोजो कि सांप तो मर जाय, फेर लउठी झन टूटय।’’
वोतका म संपत रकमका के कहिथे – ‘‘सुंदरू के बात सोला आना सच हे। रहि गे बात नियाव के, अइसन मन के नियाव इहां पहिली घला हो चुके हे। विही नियाव आजो होही।’’
मुसवा कहां पीछू रहने वाला। किहिथे – ‘‘महराज ह बने कहत हे। टोनही मन के विही हाल होना चाही जइसन एकर पहिली हो चुके हे। मंडल होही अपन घर के। कहां हे घना राम ह ? आय हे कि नइ आय हे। नइ आय होही त जाव, वोला खीच के लाव। आय हे त काबर चिट-पोट नइ करय?
घना मंडल ह मने मन गुनत बइठे रहय। बीस बछर हो गे हे लछनी ल ए गांव म बिहा के आय। नाती नतुरा खेलाय के दिन आने वाला हे। आज ले ककरो संग झगरा-लड़इ नइ करिस। ससुर ल ससुर, जेठ ल जेठ, ननंद-देवर ल ननंद- देवर मानिस। जइसन-जइसन नत्ता-गोता वइसने नत्ता सबरदिन ले मानत आवत हे। पारा भर के लोग-लइका मन काकी-बड़े दाई कहत सकलाय रहिथें, सब ल मया-दुलार करत रहिथे। घर-परिवार म कहस कि पारा-मोहल्ला म, कोनो एक ठन ऐब नइ जानिन। अउ आज ये कुलक्छिन-पापिन ह अपन पाप ल दाबे खातिर विही लछनी ऊपर अतेक बड़ लांछन लगावत हे ? अउ जनम के अंखफुट्टा ये संपत अउ मुसवा, जउन मन न तो ककरो बनती देख सकंय न ककरो सुम्मत। गांव के कते दाई-माई बर ये मन नान्हें नीयत नइ करिन होहीं ? इंखर पाप ल कोन नइ जानय। अपन पाप ल ढांपे खातिर अउ गांव ल दबाय खातिर आज ये मन अइसन परपंच रचे हें। इंखर थाप म नइ आय तेकर बर ये मन अइसने दांव खेलथें। अच्छा बदला लीन दुस्मन मन। फेर का करय घना मंडल। बइसका ह बइसका आय। नियाव ह सबूत मांगथे। का सबूत हे वोकर करा ? सब ल गुन के वोकर मुंहूं ह बंधा गे। दुनों हाथ जोड़ के कांपत-कांपत कहिथे -’’ आय हंव भइया हो, येदे बइठे हंव।’’
मुसवा – ‘‘सुनेस कि नहीं। सुंदरू ह का कहत हे ?’’
घना मंडल – ‘‘लछनी ल ये गांव म बिहा के आय बीस बछर हो गे। वोकर अंचरा म कोनो प्रकार के दाग नइ लगिस। आज फुलबासन के कहे ले वो टोनही बन गे? सुंदरू का किहिस, मंय सुन डारेंव। पंचायत ह का कहत हे अब वहू ल मंय सुनना चाहत हंव। अउ कोन-कोन ल टोन्हाय हे लछनी ह, वहू मन बता डरंय।’’ मुसवा – ‘‘तोर बाई सती-सतवंतीन हे, चलनदार हे, अउ सुंदरू के बाई बदचलन हे, अइसने कहना चाहत हस का तंय। बने साफ-साफ बता।’’
वोतका म संपत फेर रोसिया गे। कहिथे – ‘‘होही जी तोर बाई ह सती-सतवंतीन। फेर सिधवा के पेट म दांत घला रहिथे। साबित हो चुके हे। फुलबासन ल तोरे बाई ह चुहकत हे। ……..अरे का देखथस रे सुंदरू। हिम्मत हे ते उठ। जा अउ घर ले खींचत लान मंडलीन ल। नंगरी करव अउ केंरवछ चुपर के गली म घुमाव। देखबोन,सतवंतीन मन कइसन होथे।’’
सुंदरू अउ मुसवा के पाट दबइया मन कलर-कलर करे लगिन।
घना मंडल के तन-बदन म आगी बर गे। छाती अड़ा के कहिथे – ‘‘कोन माई के लाल दूध पिए हे। मोर घर के मुहाटी म चढ़ के तो बताय।’’
बात ल बिगड़त देख के सरपंच ह खड़ा हो गे। सब ल सांत कराइस। किहिस – ‘‘कोनो कहि दिस कान ल कंउआ ले गे त कंउआ के पीछू नइ भागना चाहिये। कान ल पहिली टमड़ के देख लेना चाहिये। कहिथें, तइहा के बात ल बइहा ले गे, तभो तइहा के बात करथव। बीस बछर पहिली के बात करत होहू त सुनव। बात इहिच आय। वहू म एक झन फुलबासन रिहिस, लछनी मंडलिन रिहिस, मुसवा अउ संपत घला रिहिन। वहू समय इही भूत-बइरासू के नाम ले के गदर माचिस। वो समय के मुसवा अउ संपत के उभरउनी म भूत धरइया के परान ले लिन। उंखर परिवार के सती-गति हो गे। …………..फेर वो दिन के फुलबासन आजो जीयत हे। आज ले वोला भूत धरत हे। टोनही के तो परान ले लिन तब वोकर भूत धरइ ह माड़िस काबर नहीं ? उभरइया मन घला का हाल हो के मरिन सब जानथव। वो दिन के बात करथव। कुछू लगथे? अरे, जउन ल टोनही समझ के मारिन वो ह टोनही रिहिस? कि वो उभरइया मन टोनहा रिहिन, जउन मन एक निरपराध के परान लेवा दिन?’’
‘‘तंय घना मंडल के सरोठा मत तीर सरपंच साहब। अइसन मन बर अइसनेच करना चाही।’’ नानुक किहिस।
सरपंच – ‘‘तब घना मंडल अउ लछनी काकी के परान ल लेहुच तुमन ? इंखर परान लेय से फुलबासन के बीमारी माड़े के गारंटी हे त बताव। फुलबासन तहां ले अमर हो जाही क, यहू ल बताव। गारंटी हे ते बताव। तुंहला कुछू करे के जरूरत नइ हे। लछनी ल मंय मारहूं।’’
मुसवा ह रखमखा के कहिथे – ‘‘पहिली तंय गारंटी दे सरपंच कि दुनिया म टोनही नइ होवय। भूत-परेत नइ होवय। जादू मंतर नइ होवय।’’
सरपंच – ‘‘तब फुलबासन,संपत अउ मुसवा ह बतांय कि वो मन कते स्कूल,कते कालेज म टोनही विद्या पढ़े हें। कोनो आदमी ल टोनही नाव धरे के प्रमाण-पत्र ये मन ल कोन देय हे ? टोनही के मंतर कइसन होथे, बतांय कोनों, जानत होहीं ते।’’
अब संपत ह उfमंहा गे। कहिथे – ‘‘मंतर के बात तंय झन कर सरपंच। दुनिया म मंतर सच्चा होथे।’’
सरपंच – ‘‘मंतर सच्चा होथे, महुं जानथंव। मानथंव घला। फेर बताव भला मंतर काला कहिथे ? चारों वेद के ऋचा मन ल मंत्र कहे जाथे। ओमकार मंत्र अउ गायत्री मंत्र ले बड़ के दुनिया म अउ कोनों मंत्र होथे ? होवत होही त बताव। भगवान के नाम ह खुद सबले बड़े मंत्र होथे। भगवान ऊपर बिसवास हे कि नइ हे ? है त बताव, दुनिया म भगवान बड़े होथे कि टोनही बड़े होथे ? टोनही ब़ड़े होवत होही त वोकरे नाम लेय करो, भगवान ल काबर मानथो ?’’
संपत – ‘‘सरपंच, तंय टोनही-टमानी, भूत-परेत ल नइ मानस ते झन मान। सरकार नइ मानय ते झन मानय। सियान मन मानत आवत हें। दुनिया मानत हे। तोर एक झन के नइ माने ले दुनिया नइ बदल जाय। उठ रे सुंदरू का देखत हस? का केहेंव तोला नइ सुनेस ?’’
फेर तो जहू-तहू चींव-चांव करे लगिन। हो-हल्ला मात गे। कहे लगिन – ‘‘संपत महराज बने कहत हे। उठ रे सुंदरू, का देखथस। खींच के ला मंडलीन ल। नइ ते तोर बाई ल खटिया सुद्धा उंखरे घर म लेग के सुता दे।’’
रघ्घू घला रायपुर ले आय रहय। खड़े हो के कहिथे – ‘‘भाई हो, चुप हो जावव। हल्ला-गुल्ला करे म कोनों काम ह नइ बनय। महूं कुछ बोलना चाहत हंव।’’
संपत – ‘‘इहां सियान मन बोल सकथे। लइका मन ल बोले के आडर नइ हे। तोर घर के सियानी तंय करथस कि तोर बाप करथे तउन ल पहिली बता?’’
रघ्घू – ‘‘आज ले मोर घर के सियान मंय हरंव। मोर बात ल पंचायत ल सुनेच बर पड़ही। मंय रायपुर म रहि के पढ़थंव फेर गांव म आवत-जावत रहिथंव। गांव म का होवत हे वहू सब ल जानथंव। भइया हो, सरपंच कका ह बने बात कहत हे। जमाना आज कहां ले कहां निकल गे हे। आदमी चद्रमा अउ मंगल म पहुंच गे हें। पहिली जउन बीमारी मन के इलाज नइ हो सकय आज वहू बीमारी मन के षर्तिया इलाज होवत हे। कतको लाइलाज बीमारी मन के पहिचान अउ वोकर इलाज के तरीका, वोकर दवाई के खोज घला होवत हे। फेर कतको बीमारी आजो लाइलाज हे। आदमी के सरीर ह बीमारी के घर आय। बइगा-गुनिया के चक्कर म नइ पड़ के जानकार डाक्टर से इलाज कराना चाहिये।’’
मुसवा – ‘‘काली के तंय लइका, चुटुर-चुटुर झन मार। इलाज होवत हे कि नहीं, चोवा डाक्टर ले पूछ।’’
रघ्घू – ‘‘चोवा कका के मंय अपमान करना नइ चाहंव। बात के लाइन म बोले बर पड़त हे। चार-छः महीना कोनो डाक्टर के कंपाउण्डरी करके, सूजी लगाय बर सीख लेय से कोनो डाक्टर नइ बन जावय। अइसन होतिस तब बड़े-बड़े मेडिकल कालेज काबर खुलतिस। लाखों रूपिया खरचा कर के सात-आठ साल तक कोनों डाक्टरी के पढ़ाई काबर करतिन ? महूं ल तो हो गे हे आज चार साल डाक्टरी पढ़त।’’
संपत – ‘‘सरकारी अस्पताल म घला जांच कराय हे। वहू मन तो कुछू बीमारी नइ बताइन।’’
रघ्घू – ‘‘जांच रिपोर्ट तो लिख के देय होही ? लाव तो मंय देखथंव।’’
अब तो संपत, मुसवा अउ सुंदरू सिटपिटा गें। बोलती बंद हो गे।
रघ्घू ह फेर तिखारिस – ‘‘लाओ न कका, जांच रिपोर्ट कहां हे, चुप काबर हो गेव ? ……. आजकल एक ठन नवा बीमारी निकले हे जउन ल एड्स कहे जाथे। भगवान से बिनती हे, कोनों दुस्मन ल घला ये बीमारी झन होवय। दुनिया म येखर कोनो ईलाज नइ हे। फेर फुलबासन काकी के बीमारी के जउन लक्षन मंय सुनथंव वोकर से तो मोला एकरे आसंका जनावत हे। सुंदरू कका ! पंच ल परमेसर कथें। सच-सच बता, डाक्टर कहूं अइसने तो नइ बताय हे।’’
सुंदरू – ‘‘तंय बने कहिथस बेटा।’’ बीच सभा म हाथ जोर के कथे – ‘‘रघ्घू कहत हे तउने ह सच आय भइया हो। संपत अउ मुसवा के उभरवनी म मोर मति मारे गे रिहिस। मोला माफी देहू।’’
संपत अउ मुसवा, दुनों झन के कांटो तो खून नहीं। अब तो सब संपत अउ मुसवा बर खांव-खांव करे लगिन। दूनों झन उठिन अउ सुटुर-सुटुर अपन-अपन घर के रद्दा धरिन।
सरपंच ह कहिथे – ‘‘वाह बेटा रघ्घू , आज तंय भोलापुर के नांव ऊंचा कर देस।’’
घना मंडल ह सरपंच अउ रघ्घू ल पोटार लिस।

कुबेर
(कहानी संग्रह भोलापुर के कहानी से)