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कविता

सत के रद्दा

कोना रूपया लाख कुढ़ोवे
कोनो बल मा तोला दबावे
झन तय कोना ला डरबे
सत् के रद्दा मा चलबे

मेकरा लार मा जाला ला बनाथे
दू-चार दिन रहीे जिनगी बिताथे
मोह मा पर के वो मेकरा हा भईया
अपनेच जाला मा फंस मर जाथे
झन तय अइसन गढ़बे
सत् के रद्दा मा चलबे

ये जिनगी तोर हे भंवरा बरोबर
सुख सुरूज दुख चंदा बरोबर
मीठ के लालच मा पर के गा भईया
अपन डेरा मा उड़े ला भुलाथे
झन तय लालच करबे
सत् के रद्दा मा चलबे

जादा कुढ़ेना मा गरूआ अघाथे
कपटी मनखे मछरी कस पियासे
कपट के घर कभू भरे नई भईया
छल-कपट मा जिनगी ला बिताथे
झन तय अइसन बनबे
सत् के रद्दा मा चलबे

कहिथे लबरा के नवठन हे नांगर
काम-बूता बर कोढ़िया हे जांगर
जादा नई चलय लबारी गा भईया
अपनेच मुंहूं मा थू-थू कहाबे
झन तय लबरा बनबे
सत् के रद्दा मा चलबे

कुटुम्ब मोर कहि जिनगी बिताथस
का हे तोर जइसे सबला बताथस
कुछु नई तोर, छोड़ चार हाथ भुंइया
दूसर पाटे बर लगानी पटाबे
काला मोर ये कहिबे
सत् केरद्दा मा चलबे

मानुस जनम झन बिरथा गंवाजी
जिनगी के नाव भव ले पार करा जी
छल, कपट, मोह, लालच हा भईया
दूवेच-दिन के संग देवईया
झन तय अइसन बनबे
सत् के रद्दा मा चलबे

Bhola Ram Sahu

 

 

 

 

 

भोलाराम साहू