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छंद सार

सार छंद : पूछत हे जिनगानी

घर के बोरिंग बोर सुखागे, घर मा नइ हे पानी।
टंकर कतका दिन सँग दीही, पूछत हे जिनगानी।

नदिया तरिया बोरिंग मन तो, कब के हवैं सुखाये।
कहूँ कहूँ के बोर चलत हे, हिचक हिचक उथराये।

सौ मीटर ले लइन लगे हे, सरलग माढ़े डब्बा।
पानी बर झींका तानी हे, करलाई हे रब्बा।

चार खेप पानी लानत ले, माथ म आगे पानी।
टंकर कतका दिन सँग दीही, पूछत हे जिनगानी।

सोंचे नइ हन अतका जल्दी, अइसन दिन आ जाही।
सोंच समझ मा होगे गलती, अब करना का चाही।

बारिश के पानी ला रोकन, डबरी बाँध बनाके।
सागर मा जावन झन पावै, नरवा नदिया पाके।

पानी रइही तभे निकलही, बोली आनी-बानी।
टंकर कतका दिन सँग दीही, पूछत हे जिनगानी।

भुँइया भीतर के पानी ला, बउरन चेत लगाके।
गलगल गलगल झन बहवावन, फिल्मी गाना गाके।

रुखराई सरलग सिरजावन, भुँइया हर हरियावै।
जनता सँग सरकार घलो हा, आके हाँथ बँटावै।

बिन पानी कइसे चल पाही,चतुरा चतुर सियानी।
टंकर कतका दिन सँग दीही,पूछत हे जिनगानी।

सुखदेव सिंह अहिलेश्वर “अँजोर”
गोरखपुर, कवर्धा (छ.ग.)

One reply on “सार छंद : पूछत हे जिनगानी”

अब्बड़ सुघ्घर। बधाई हो

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