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कविता

सावन समागे रे


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धरती आज हरियागे रे।
सावन सुग्घर समागे रे।।
मोर मयारू के मया म,
मन के पिरीत पिऊँरागे रे।।
सावन सुग्घर समागे रे……….

बादर गरजे, बरसा बरसे,
बिन जोंही के हिरदे तरसे।
अँखिया ले आँसू बोहागे रे।
सावन सुग्घर समागे रे।।१

गिरत हे पानी,चुहत हे छानी,
कहाँ लुकाय हे मोर ‘मनरानी’।
आस के अँगना धोवागे रे।
सावन सुग्घर समागे रे।।२

ऊँघाय तन अउ जागय मन,
चेहरा तोर,हिरदे के दरपन।
असाङ कस तैं लुहादे रे।
सावन सुग्घर समागे रे।।३

चुरपुर ठोली,गुरतुर बोली,
जुच्छा परे हे मया के खोली।
मया माटी ममहागे रे।
सावन सुग्घर समागे रे।।४
मन के पिरीत पिऊँरागे रे…….

अमित सिंगारपुरिया
शिक्षक~भाटापारा
जिला~बलौदाबाजार (छ.ग.)
संपर्क~9200252055


4 replies on “सावन समागे रे”

कन्हैया जी, सुग्घर गीत रचे हव। बधाई।

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