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कहानी

सुकारो दाई

सुकारो अपन घर मुहाटी के आगू आंट म बइठ के मेरखू के गोंटी मन ल बीनत रहय। मेरखू बिनइ हर तो बइठे बिगारी बुता आवय, वो तो नंदगहिन के रस्ता देखत रहय। दिन के बारा बजे के बेरा रिहिस होही, अग्घन-पूस के घाम, बने रुसुम-रुसुम लगत रहय। देखत देखत घंटा भर हो गे, घाम ह घला बिटौना लगे लगिस। नंदगहिन के दउहा नहीं। सुकारो ह गोठियाय बर कलकलात रहय। जी उकुल-बुकुल होय लगिस। मने मन कहिथे – ‘कहां झपाय होही रोगही मन ह आज। नंदगहिन ह नइ हे त नइ हे, कांकेतरहिन ह तो दिखतिस। कोन जानी कहां मुड़ाय होही आज दुखाही मन। आन दिन कइसे सुकारो, सुकारो हहिके सोरियावत आवंय। जोम दे के बइठे रहंय। मरे रोगही मन, कहीं घला जांय-मरें।’ गुस्सा के मारे सूपा ल आंट म भर्रस ले पटक दिस अउ तरवा धर के बइठ गे।
सुकारो मने मन गंुगवात रहय। असल बात ये हरे; वोकर बहू ह आज होत बिहनिया मइके चल दे हे। घर म रहितिस त कोनो न कोनो ओखी करके कतको घांव ले वोकर संग झगरा मता डारे रहितिस। फेर हाय रे किस्मत, आज के दिन कइसे पहाही ते?
ठंउका उठे बर गोड़ ल लमात रहय, ओतकी बेर नंदगहिन ह कोन जानी कते डहर ले आइस ते, वोकर आगू म झम्म ले खड़ा हो गे। ठुमक के कहिथे – ‘‘झाऊ।’’
सुकारो ह तो कंझाय बइठे रहय। नंदगहिन के आय के गम ल नइ पाइस। वोकर झाऊ म अलकरहा झकनका गे। लटपट अपन पागी पोलखा ल संभालिस अउ हफरत-हफरत मुटका बांध के नंदगहिन ल चमकावत कहिथे – ‘‘तोर रोना पर जाय ते। सियान सामरत मनखे ल झझका-चमका के मार डारबे?’’
सुकारो ह अपन छाती के अंचरा ल अभी तक बने सोझियाय नइ पाय रिहिस। पोलखा भीतरी ले गोfलंदा भाटा कस छाती मन लसलसात दिखत रहय। विही डहर कनखही देखत नंदगहिन ह बेलबेलावत कहिथे – ‘‘ओ हो… कब ले हो गेस तंय सियान? मंय कोनो डउका जात होतेंव, अभीचे तोला झिंकत- झिंकत पइठू ओइलातेंव।’’
सुन के सुकारो के मुंह कान ह लाल बंगाला हो गे। मुंह बिचका के कहिथे – ‘‘जादा झन इतराय कर रे बिलइ, भंइसी, छिनार। तोर बकचंडी कतेक चढ़े हे ते गांव भर के बिजाड़ मन ल तिंही नइ अपन घर म ओइला डरस।’’
अतका ल सुन के नंदगहिन ह कठल के हांसे लगिस। सुकारो घला मुसुर-मुसुर मुसकाय लगिस। अइसने हंसी ठिठोली कर के बिचारी मन कभू-कभू हांस गोठिया लेथें, नइ ते जिंदगी म उंखर दुख के सिवा अउ का हे?
भगवान ह बिचारी सुकारो के जिन्दगी म गजब के परछो लेय हे। भरे जवानी म वो ह खाली हाथ हो गे। बेटा किसन ह पांच साल के रिहिस होही। बेटा के मुंहू ल देख देख के वो ह अपन जिनगी ल खुवार कर दिस। देवर-जेठ अउ पारा मोहल्ला के भला-बुरा नीयत ले अपन मरजाद अउ जायदाद के रक्क्षा करना रांड़ी मोटियारी बर कोनो सरल काम नइ होवय। ककरो नीयत वोकर जवानी म लगे रहय त ककरो नीयत वोकर जायदाद म। फेर वाह रे सुकारो! कोन जाने वोकर अंतस म कोन देवी आ के बिराजिस ते; न अपन जायदाद म, न तो अपन मरजाद म, कोनो किसम के टिकी लगन नइ दिस। अउ आज वो ह बेटा ल पढ़ा लिखा के, वोकर बर-बिहाव कर के गंगा नहा डारिस। बेटा किसन ह अब सरकारी नउकरी के आस लगाय बइठे हे। खेत-खार कोती चिटको ध्यान नइ देवय। बिचारी सुकारो ह कतिक ध्यान करे। कतेक हलाकान होय? सोंचे रिहिस, नाती-नतुरा आ जाही तहां ले विही मन ल खेलात-खवात बचे खुचे जिनगी ह घला पहा जाही। फेर वाह रे किस्मत, पांच साल हो गे हे बहु आय; एको ठन तो फूल फुलतिस? बेटा तो अब बहु अलंग हो गे हे। एके झन म दिन कइसे पहाय? वोकरे सेती वो ह अब बात-बात म कंझावत रहिथे अउ बहु ल झगरत रहिथे।
वइसनेच हाल नंदगहिन के हे। नंदगहिन के दु झन बेटिच बेटी हे। दुनाों के बर-बिहाव हो गे हे। भगवान के किरपा ले दूनों झन अपन अपन घर म हंसी-खुसी कमावत खावत हें। नंदगहिन अपन घर म एके झन रहिथे। गजब के बेलबेलही नारी आय। नत्ता देख देख के ठिठोली करे बर कभू नइ चूकय। गांवेच म नहीं, अतराब म घला वोकर सही जचकी निबटइया अउ कोनो नइ हे। वोकर बिना ककरो घर के छट्ठी-बरही नइ निभय।
सुकारो अउ नंदगहिन जिंदगी भर के निकता-गिनहा, सुख-दुख के पक्का संगवारी आवंय। सुकारो ह नंदगहिन ल कहिथे – ‘‘कते डहर झपाय रेहेस रे छिनार, दिन भर म अभी दिखत हस। गोठियाय बतराय बर घला तरस गेन।’’
नंदगहिन – ‘‘अइ, बड़े-बड़े बम फटाका फूटिस हे तेला नइ सुनेस का भइरी ?’’ घर भीतरी के आरो लेवत फेर कहिथे – ‘‘बहु के आरो नइ मिलत हे, नइ हे का ?’’
‘‘अपन दाई घर गे हे छुछवाही ह।’’ हुड़से सही सुकारो कहिथे।
‘‘ओकरे सेती तोर मुंहू ह उतरे हाबे न ? बने करिस बिचारी ह। दू दिन घला तो हित लगा के खाही-पीही ।’’
सुकारो ह रिसा गे, कहिथे – ‘‘हव दाई, हम तो जनम के झगरहिन आवन। दुनिया भर ल झगरत गिंजरत रहिथन।’’
नंदगहिन ह फेर ताना मारिस – ‘‘राजा रिसाही ते अपन गांव लिही, अउ का करही ?’’
सुकारो अउ भड़क गे। मुंह फुलो के दूसर कोती देखे लगिस।
नंदगहिन ल कोनो ल भड़काय बर आथे त मनाय बर घला आथे। सुकारो के कान म मुंहू ल टेंका के कहिथे -’’ सुनथस मंडलीन, मुकड़दम के बेंड़ा म कोनो नइ हे तइसन फकफक ले पंड़रा, सांगर मोंगर टूरा लइका होय हे वोकर बहु के। तभे तो दनादना-दनादन पांच ठो बम फोरिस हे।’’
सुन के सुकारो के मुंहू ओसक गे। कथे -’’ अउ वोकर मुंहरन-गढ़न काकर सरीख हे तउन ल तो नइ बताएस रे रोगही। गंउटिया के टुरा सरीख तो नइ हे ?’’
इसारा ल समझ के दुनों झन कठल के हांस डरिन।
सुकारो कहिथे – ‘‘गंउटिया के रोगहा हरामी टुरा ह चार दिन हमरो घर कोती रमे सही करे। फेर एक दिन सात पुरखा म पानी रुकोयेंव रोगहा के। जोम दे देय रहय। जादा करतिस ते खंड़री नीछे रहितेंव रोगहा के। महूं अपन बाप के बेटी आवंव।’’
दुनों झन के मुंह करुवा गे। छिन भर बर चुप्पी छा गे। सुकारो बोटबिटा गे रहय। नंदगहिन आय सबर दिन के वोकर संगवारी। वोकर मन के बात ल ताड़ गे। पांच बछर हो गे हे बहु आय, फेर नाती नतुरा के दउहा नइ हे। एकरे संसो-फिकर वोला खाय रहिथे। रात दिन घुरत रहिथे। कहिथे – ‘‘जादा संसो-फिकर झन करे कर मंडलिन। भगवान के किरपा होही ते एसो के दिन के आवत ले तुंहरो घर बम फूट के रही।’’
सुकारो – ‘‘मत ले तंय भगवान के नाम ल नंदगहिन बहिनी। दुनिया बर वो भले होही, हमर बर नइ हे। रहितिस ते जिनगी भर हमला का अइसने रोवातिस ?’’ अंचरा के कोर म आंसू ल पोंछ के फेर कहिथे – ‘‘बहिनी, मंय तो बइद-गुनिया, तेला-बाती अउ दवइ- पानी करत-करत हार गेंव। बेटा ल कहिथंव येला निकाल, अउ दूसर बिहाव कर, फेर वो ह अब मोर बात ल काबर सुनही?’’
नंदगहिन – ‘‘बहिनी ,नारी हो के नारी बर अइसन बात झन सोंचे कर। बहु हर घला बेटिच आय। सोला आना बहु पाय हस। भगवान ह नइ चिन्हय, तब बिचारी ह का करही ? सरीर ताय, ऊंच-नीच होवत रहिथे। बहु आय, गरू गाय नोंहे। बिहा के लाये हन तब हमर घर आय हे। कइसे निकाल देबे? अउ दुसरइया बिहाव करइया के किस्सा ल भुला गेस का ? सुरता कर मुरहा के। का हाल होय रिहिस वोकर ?’’
मुरहा के किस्सा ल सुरता कर के दुनों झन कठल के हांस डरिन।
इही गांव म एक झन मुरहा नांव के आदमी हे। चरवाहा लग लग के अपन गुजर-बसर करथे। भाई बंटवारा म एक खोली के घर मिले रहय। अपन मन खोली म सुतंय, दाई ह परछी म। लइका लोग नइ होइस तब बरे बिहाती ल बक्ठी हे कहिके झगरा मताय। दाई के उभरौनी म आ गे। एक झन छड़वे डउकी ल चूरी पहिरा के ले आइस। अब सुते-बसे के बेवस्था कइसे करे जाय? एक ठन खोली म दुनों बाई के निरबाह नइ होइस तब बिहाती के खटिया ल पटंउहा म चढ़ा दिन। चढ़े-उतरे बर निसैनी टेंका दिन। भगवान के लीला घला अपरम्पार होथे। जउन बिहाती ल बक्ठी कहिके रात दिन झगरा लड़ंय, वोकरे पांव पहिली भारी हो गें।
जड़कला के समय रहय। एक दिन अलकरहा हो गे। रात के जेवन करके मुरहा ह पान खाय के बहाना घूमे बर निकल गे। नौ-दस बजे लहुटिस। खाल्हे वाले के नींद पर गे होही सोंच के पटंउहा डहर चढ़े लगिस। नींद न खाल्हे वाले के परे रहय, न ऊपर वाले के। खाल्हे वाले ह रटपटा के उठिस अउ वोकर दुनों गोड़ ल चमचमा के धर लिस। किहिस – ‘‘एकरे बर मोला चूरी पहिरा के लाय हस ? उतर खाल्हे।’’
पटंउहा वाले ह घला झपटिस। वो ह दुनों हाथ ल जभेड़ के धर लिस। किहिस – ‘‘अतेक दुरिहा चढ़ के अब उतरबे कइसे?’’
खाल्हे वाले ह खाल्हे दहर खींचे, ऊपर वाले ह ऊपर डहर। खींच तान म निसैनी ह घला गिर गे। अब तो मुरहा के देखो देखो हो गे। सकत ले हाथ गोड़ ल चलाइस। कतका छटपटातिस? लाज-सरम करे म तो पराने निकल जाही। जोर-जोर से गोहराय लगिस – ‘‘मर गेंव दाई ओ…. बंचा मोर दाई…..परान छुट गे वो….।’’
दाई ह सबो बात ल समझ गे। बेटा ल बचाय बर दंउड़िस। फेर कपाट ह भीतर कोती ले बंद रहय। कइसे खुले अउ कोन खोले? मुरहा अधमरहा हो गे फेर वाह रे राक्षसिन हो। कोनो ह तो दया करतिन।
दाई ह सोंचथे, जग हंसाई होय ते होय, बेटा के परान तो बांच जाय भगवान। बीच गली म खड़ा हो के गोहार पारे लागिस – ‘‘दंउड़ो ददा हो, दउड़ो बबा हो, मोर बेटा के परान ल बचा लेव।’’
गांव म सोवा पर गे रहय फेर पान ठेला म दू चार झन लफाड़ू टुरा मन गप सड़ाका करत जागत रहंय। अनहोनी जान के वहू मन चिल्लावत दंउड़िन। देखते देखत आधा गांव वोकर मुंहाटी म जुरिया गें। कपाट के गुजर ल उसाल के लटपट मुरहा के परान ल बंचाइन।
कहिथें, बोकरा के परान छूटे, खवइया बर अलेना। वोतका बेर तो कोई कुछू नइ किहिन, फेर बिहान दिन लोगन बड़ा रस ले ले के ये घटना के बरनन करंय अउ कठल कठल के हांसंय। आजो येकर गम्मत मड़ाथें।
हंसी ल लटपट थाम के सुकारो ह कहिथे – ‘‘त का उपाय करबो बहिनी, तिंही बता? तोर ले जादा अउ कोन जानही?’’
नंदगहिन – ‘‘मंडलिन बहिनी, आज कल के पढ़े-गुने लइका मन के बिचार घला अलगेच रहिथे। नरस बाई ह कहिथे ‘पहला बच्चा अभी नहीं, दो के बाद कभी नहीं।’ बहु-बेटा मन कहूं अइसने सोचें होही तब? नरस बाई ल मंय तुंहर घर आवत-जावत घला देखथों। ‘‘
सुकारो – ‘‘उंखर सोंचे ले का होही? भगवान दिही तेला कोई रोक सकथे का?’’
‘‘तंय हस निच्चट अंड़ही। आज कल रोके के घला कतको उपाय निकल गे हे। हम तुम भले नइ जानन। ये मन सब जानथें।’’ नंदगहिन ह समझाइस।
ठंउका वोतकेच बेर किसुन ह बजार ले आइस। नंदगहिन ह सुकारो ल अंखिया के कहिथे – ‘‘रुक जा, मंय अभी भेद ले के आवत हंव।’’ थोरिक देर म नंदगहिन ह हांसत-हांसत आइस अउ किहिस – ‘‘आखिर मोरे बात सच निकलिस न। फोकट रात-दिन चिंता फिकर म दुबरात रेहेस। बाबू ल मंय सब समझा दे हंव। इही दिन के आवत ले तोरो घर फटाका नइ फूटही ते मोर मरे मुंह ल घला झन देखबे।’’
सुकारो – ‘‘भगवान तोला सौ बछर जियावय बहिनी। हम अंड़ही आजकल के नवा-नवा टेम-टाम ल का जानबो।’’ किसुन ल बला के कहिथे – ‘‘किसुन, सुनथस बेटा। काली बिहाने जा के तंय बहु ल ले आतेस गा। नइ हे ते घर ह उदसहा-उदसहा लागत हे।’’
किसुन – ‘‘तंय तो कभू झन आबे केहे हस मां।’’
सुकारो – ‘‘कहि परे होबोन रिस म। रिस के बात ल धर के अइसने रिसाहू त भला मंय काकर भरोसा जीहूं। वो बहु नो हे, हमर बेटी आय, लक्ष्मी बेटी। तंय नइ जाबे ते हम चल देबो। का के लाज सरम?’’
सुकारो मंडलिन के हिरदे के बदले भाव ल नंदगहिन ह ताड़ गे। किसुन ल कनखियाइस। दुनों झन के हांसी छूट गे। सुकारो सिट ले हो गे। सेत मेत के गुस्सा करत कहिथे – ‘‘बेटा, तोर तीर चिटको घला बुध हे रे? दाई ल एलथस। चंडाल कहीं के।’’
किसुन ह भीतर कोती भागिस। एती ये मन खिलखिला के हांसे लगिन।

कुबेर
(कहानी संग्रह भोलापुर के कहानी से)