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गोठ बात

हमन कहां जात हन – सुधा वर्मा

रामकुमार साहू के कविता संग्रह के भूमिका लिखत रहेंव त ओमा एक लेख ”तईहा के ला बइहा लेगे” ल पढ़त-पढ़त सोचेंव के ये लेख के जम्मों बात ल मैं ह अपन मड़ई म अलग-अलग रूप मा दे डरे हवं। फेर पढे क़े बाद उही सब बात ह दिल दिमाक मा आए ले धर लीस। गर्मी के मजा अउ अवइया बरसात के जोखा एके रहिस हे। अमली के बीजा हेरन, बोईर के मुठिया बनावन। मखना के खोइला करन। अम्मारी, पटवा, चना भाजी के सुक्सा ल बने सुखो के धरन। अब ये साग, चटनी मन देखे बर नइ मिलय। कहां गए वो सीलबट्टा के चटनी, लसुन मिरचा के चटनी अउ बासी। हंड़िया के भात अउ करसी के जूड़ पानी।
कांसा के थारी, लोटा म खाना देवई ह सगा के मान ल बढ़ावय। अब तो पूजा बर लोटा नई मिलय।
अब तो सनीचर के सनी ल धरे हन ”आ भइया इहें रह, झन जा” कहिके स्टील ल पोटारे हन, त दु:ख तकलीफ तो होबे करही। आज कहां गे ठेठरी, खुरमी, चौंसेला? पाक प्रतियोगिता म दिखथे। चीला के जगह डोसा होगे। इडली, ढोकला अउ नरियर के चटनी, मूंगफल्ली के चटनी, लाली चटनी, हरियर चटनी आगे हे। आज के लइका लहसुन-मिरचा के चटनी ल काय जानही। ईमली के लाटा, बोईर के मुठिया ल कोनो जानय नहीं। मुठिया के नाव ले सुरता आगे दू साल पहिली मैं ह अपन भाई घर मन्सर (महाराष्ट्र) गे रहेंव। ओखर बंगला बहुत बड़े रहिस हे, आमा, जाम, बोईर के पेड़ बहुत रहिस हे। दू झन नौकर मन ल काम म लगा दिन के बोइर ला तोड़ के सुखोवव अउ कूट के पाऊडर बनावव। हमर राहत म पाऊडर बन गे अब नमक, मिरचा डार के हमन मुठिया बनायेन अउ संग म लेके घलो आयेन।
करीब पच्चीस साल के बाद मुठिया खाय बर मिलीस। सब राज्य ले जादा हमर छग के मन अपन खान-पान ल भुलागे हावंय। अइसे भी कहे जा सकथे के हमन ल अपन खान-पान ल बताये म सरम आथे। हमर चाैंसेला अउ फरा के पार्टी देंव, करीब चालीस झन महिला साहित्यकार मन खईन त चाटते रहिगें। हमर पाताल के चटनी ह कमती परगे। दू किलो टमाटर के चटनी ल सब चांट डरिन। चाैंसेला ल चावल के पूड़ी कहि देंव त सब चकित रहिगें।
हमर संस्कृति तो गांव म जीथे। अपन चीला, फरा, चौसेला अउ रसाज ल सान से खवावव अउ खावव। हमर चटनी मन ल देस म इसथान देवावव। ये काम हमर आय। आज पार्टी म उही-उही साग देखे बर मिलथे, एक बेर मसरी के बटकर तो खवा के देखव, आलू-भांटा के सुक्सा साग तो बना के परसव। हमर खाजा अउ, करी लाड़ू ल तो सजा के रखव। ये पार्टी अउ खान-पान म छत्तीसगढ़ के महक होही। ये पार्टी म खा के सब झूमहीं नहीं त कहिहू। हमर तसमई अउ रबड़ी संग जलेबी रख के सब के मुंह ल मीठा करव। हमन अपन कलेवा अपन, खान-पान ल आखरी सांस लेवत छोड़ के भागत हन। नहीं भई लहुट के अपन संस्कृति के जिनिस ल अपन कलेवा ल जियावव अउ पोट्ठ करके खड़ा कर दव। सब देखंय अउ खुस हो जांय।

-सुधा वर्मा