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कविता

हवा हमर बैरी बनगे

ऐ दाई ते हरह सुने हस का वो?
काय रे?
ऐती वोती चारों कोती, ‘स्वाइन फ्लू’ है बगरत हावय
काय फूल रे? बने तो हे रे!
फूल बगरत हावय त चारो कोती बने ममहाही वइसने आजकल पढ़े लिखे मन घलो कचरा ल जम्मो डाहर फेंक देथे अउ हमन अनपढ़ होके घलो घुरूवाच म डारथन।
नहीं दाई, फूल नहीं वो ‘स्वाइन फ्लू’
एक ठन वाइरस हावय तेन ह सब झन ला अपन बस मा करत हावय, अउ मारत हावय।
आदमी-औरत मन एक दूसर ल अपन बस मा करथे तेला सुने रेहेंव ऐ काय नवा जिनिस ये रे?
हत्त रे टूरा, तहूं हर,
अपन बस मा करके मारथे थोड़े रे, अपन मन ले वोला नचाथे बस।
नहीं वो, तैं हर काहत हस तेन चीज नोहे ए हर।
अच्छा सुन- अब बाहिर डाहर जाबे त, नाक मुंह ल बने तोप ढांक के जाबे। नहीं तो बीमार पड़ जाबे।
ऐ टूरा ह कइसे गोठियाथे वो। बाहिर कोति बइठबे त ढाकबे नहीं त बस्साही नहीं रहे? सब झन ढाकथें।
नहीं वो ते हर कांही ल नई समझस। मैं काहत हाववं कि घर ले बाहिर निकलबे त नाम मुंह म चेंदरी बांध के निकलबे, समझेस अब?
नहीं त ‘वाइरस’ ह दूसर के शरीर ले तोर म अमा जाही। अच्छा त अइसे कह न कि ए वाइरस ए। कोनो भूत के नाम हवय, तभे तो शरीर म अमाही।
ते चिंता झन कर रे, हमर गांव के बइगा हवय न तेन हर सबो भूत मन ल भगा देथे।
हां कुकरा-बोकरा भर दे ल पड़ही।
अरे दाई! ते हर निचट भोकवी हवस वो।
ते अइसने कर, ते धरेच ले बाहिर झन जा समझे अब।
अरे टूरा ते हर नई समझस रे। ये भूत-परेत मन तो घर मां घुसरे रहिबे तभो ले अमा जाथे रे। ये तो हवा ये रे। अउ हवा तो सबे डाहर होथे रे।
हव दाई अब ते ठीक केहेस वो। जेन हवा हर पहली सब झन ला जिंदगी देवत रीहिस हे आज तेन ह सब झन के जिंदगी ल लेवत हे।
आज हमर सबले बड़े बैरी इही हवा हावय वो।
ये हवा हमर बैरी बनगे वो। हवा हमर बैरी बनगे।
रजनी देवांगन
झारसुगुड़ा