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कविता

आमा के चटनी

आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे,
दू कंऊरा भात ह जादा खवाथे ।

काँचा काँचा आमा ल लोढहा म कुचरथे,
लसुन धनिया डार के मिरचा ल बुरकथे।

चटनी ल देख के लार ह चुचवाथे,
आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे ।

बोरे बासी संग में चाट चाट के खाथे,
बासी ल खा के हिरदय ह जुड़ाथे ,

खाथे जे बासी चटनी अब्बड़ मजा पाथे ,
आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे ।

बगीचा में फरे हे लट लट ले आमा ,
टूरा मन देखत हे धरों कामा कामा ।

छुप छुप के चोराय बर बगीचा में जाथे
आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे ।

दाई ह हमर संगी चटनी सुघ्घर बनाथे,
ओकर हाथ के बनाय ह गजब मिठाथे ।

कुर संग मा भात ह उत्ता धुर्रा खवाथे
आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे ।

महेन्द्र देवांगन माटी
पंडरिया छत्तीसगढ़
8602407353