जेन मनखे के रचना मन भले कभू पत्र-पत्रिका के मुंह नइ देखिन, फेर लोगन के कंठ म बिना वोकर रचनाकार के नांव जाने बइठिस अउ सुर धर के निकलिस, उही तो लोककवि होइस. सन् 1917 के रथयात्रा परब के दिन रायपुर जिला के गाँव छतौना (मंदिर हसौद) म महतारी फुलबाई अउ ददा रामचरण यदु जी […]
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कविता के थरहा- विसम्भर यादव ‘मरहा’
(सुरता ‘मरहा’ के) अवसान दिवस 10-09-2011 बिना पढ़े-लिखे अउ बिना लिखित संग्रह के अनगिनत रचना मुंह अखरा होना बड़ अचरज के बात आए। येला माता सरसती के किरपा अउ कवि के लगन, त्याग-तपसिया अउ साधना के परिनाम केहे जही मंच मं खड़ा होके सरलग 8-10 घंटा कविता पाठ करना कउनो हांसी-ठट्ठा नो हे। फेर ‘मरहा’ […]
कोनो भी अंचल के संस्कृति वो क्षेत्र के पहिचान होथे. येमा वोकर आत्मा ह वास करथे. जब अपन संस्कृति ल जन मानस समाज ह कोनो मंच म प्रस्तुति के रूप म देखथे त ऊंकर हिरदे म गजब उछाह भर जाथे. ढाई करोड़ के आबादी वाला हमर छत्तीसगढ़ के लोक संस्कृति के अलगे पहिचान हे. येला […]
पंचायती राज के पंदरा अगस्त
इस्कुली कार्यकरम मं पंचायत बॉडी के सदस्य ल ही मुख्य अतिथि के खुरसी मं बिराजमान होना हे। सब ला खुरसी मिलना चाही। मास्टर मन तो सालभर खुरसी मं बइठ के खुरसी टोरत रइथें। मास्टर मन कोती ले हमर सेवा सत्कार होना चाही अउ एक बात के बिल्कुल धियान रखना हे के सब ला खुरसी जरूर […]
छत्तीसगढ़ के बासी: टिकेंद्र टिकरिहा
अइसे हाबय छत्तीसगढ़ के गुद गुद बासी जइसे नवा बहुरिया के मुच-मुच हांसी मया पोहाये येकर पोर-पोर म अउ अंतस भरे जइसे जोरन के झांपी कासा जइसे दग-दग उज्जर चोला मया-पिरित के बने ये दासी छल-फरेब थोकरो जानय नहीं हमर छत्तीसगढ़ के ये बासी कोंवर गजबेच जइसे घिवहा सोहारी भोभला तक के बने ये संगवारी […]
पहुना: ग.सी. पल्लीवार
पहुना आगे, पहुना आगे अब्बड़ लरा जरा हो देखत होहू उनखर मन के टुकना मोटरी मोटरा हो….. कनवा कका, खोरवी काकी चिपरा आँखी के उनखन नाती रामू के ददा, लीला के दाई बहिनी के भांटो मेछर्रा हो- ननद मन ला हांसेला कहिदे चटर चटर बोले ला कहिदे तिलरी खिनवा करधन सूता भइगे उत्ताधुर्रा हो- रांधे […]
बसंत पंचमी: नित्यानंद पाण्डेय
आ गय बसंत पंचमी, तोर मन बड़ाई कोन करे द्वापरजुग के कुरक्षेत्र होईस एक महाभारत कौरव मन के नाश कर देईस अर्जुन बान मा भारत। बड़का बड़का का वीर ढलंग गे बीच बचाव ल कौन करें।। 11। तहूं सुने होवे भारत म रेल मा कतका मरिन मनखे ओकर दुख ल नई भुलायेन भुईया धसकगे मरगे […]
धूंका-ढुलबांदर: रवीन्द्र कंचन
बादर नवां छवाये मांदर ! धातिन् तिनंग तीन दहांदा पानी बरसे गादा-गादा हर-हर चले खेत म नांगर! मोती-जइसे बरसे पानी भीजे कुरिया भीजे छानी रूख तरी छैहावय साम्हर ! आल्हा-भोजली जंगल गावे बेंगचा-झिंगरा तान मिलावे नाचत हे धूंका-ढुलबांदर होगे अब अंधियार के पारी छिंटकत हावे कोला-बारी रात के हॉथ म करिया-काजंर। रवीन्द्र कंचन
परबत के झांपी: रवीन्द्र कंचन
परबत के झांपी खमखम ले माढ़े हे परबत के झांपी ! सात रंग के बोड़ा बहिंगा बने हे बादर के खाँद म तन तन तने हे नदिया के देहे ला कइसे हम नापी? सुरूज हा का जाने काबर रिसागे चंदा हा कोन कोती जाके लुकागे तरिया-तेलाई म काला हम ढांपी? रवीन्द्र कंचन
रंग: तीरथराम गढ़ेवाल के कविता
तोला कोन रंग भाथे वो नोनी के दाई वोही रंग लाहूं मंय बिसा के। मोला जउने रंग भाथे हो बाबू के ददा। वोही रंग लाहा तू बिसा के ॥ लाली लाहूं लाल लगाहूं, नीला लाहूं रंग रंगाहूं, हरा लाहूं अंग सजाहूं, पींवरा लाहूं रंग मिलाहूं। कारी रंग लाहूं का बिसा के ! लाली लागय हो […]