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व्यंग्य

व्यंग्य : माफिया मोहनी

बाई हमर बड़े फजर मुंदराहा ले अँगना दूवार बाहरत बनेच भुनभुनात रहय, का बाहरी ला सुनात राहय या सुपली धुन बोरिंग मा अवईया जवईया पनिहारिन मन ल ते, फेर जोरदार सुर लमाय राहय – सब गंगा म डुबक डुबक के नहात हें, एक झन ये हर हे जेला एकात लोटा तको नी मिले। अपन नइ नाहय ते नइ नाहय। लोग लइका के एको कनी हाथ तो धोवा जथिस। भगवान घलो बनईस एला ते कते माटी के? एकर दारी तो कोनो कारज बने ढंग ले होबेच नी करे । कतेक नी जोजियाएँव यहू ला थोर बहुत करजा बोड़ी लिखवा लव लिखवा लव, खातू कचरा निंदई कोड़ई बर सोहेलत होही, फेर ये तो कँवरों नगर के राजा आय, एला कहाँ लागही करजा बोड़ी? काकरो आगू मा हाथ पसारई तो एला लाज लागथे? घर के सुने न बन के, करथे अपन मन के।
अतेक बिहनिया बिहनिया मोरे आरती होय कस लागिस। महुँ बिष्णु भगवान सहिन खटिया मा गोड़ ला लमाके ढनगे ढनगे ओकर बंदना के कारण पुछ परेंव।
अई कहिंच ला नी जानो सहिन का होगे कहिथव, सरी दुनिया दुनिया शोर होगे, जम्मो किसान मन के करजा माफ होगे कहिथे, कालिच हमर परोसी घलो काहत रिहीस। खातू के, बिजहा के, नगद पइसा लाने रिहीस, सरकार सब ला छिमा कर दिस । जेमन धान बेंच के लागा चुका दे रिहीन उंकरो पइसा ला लहुटात हे। उही पइसा के ओहा नवा फटफटी अउ अपन गोसइन बर नौ लर के करधन घलो लान डारिस, एक तुमन हव भोकवा के भोकवा। मौका मा चौका मारे ला कभू नइ आय। बाई के गोठ सुनके मै चेथी खजवात गुने बर लग गेंव। आखिर ये करजा लेवई हमर अधिकार आय के मजबुरी?? ?
खैर जउन भी होय, लोगन मन ला गोठियाय के अवसर तो मिलिस।
सही मा आज चारो डहर किसान मन के चरचा होवत हे। सिरीफ चेहरा देखके पता चल जही कोन किसान आय तेहा ।लागथे किसान के माथा मा ओगरईया पानी थोकन मुहु मा ओगरिस। गाँव गाँव एके गोठ तोर कतका रिहीस मोर कतका रिहीस । नवा तिहार होगे। नाचे कुदे के बहाना मिलगे।
हमर ददा बबा काच्चा ले पाक्का होगे ये भूँइया मा नांगर जोतत जोतत। संगे संग हमरो उमर अधियागे ये माटी के सेवा बजावत। फेर गउकिन किसान बर कभू अइसन मौका नइ दिखे रिहीस मजूँर कस नाचत। जइसन आज ये बिना सावन के करिया बादर ल देख के नाचत हे। मँजुर कस छम छम नाचत भर नइ हे, बलुक मिरगा सहीन इंहा ले उंहा डाँहकत फाँदत घलो हे। एक किसान होय के अनुभव के लहरा पहिली घाँव सबो के अंतस तरिया मा मारत हे।
अब तक तो मन ये मानेच बर तय्यार नी होय कि किसान नाँव के घलो समाजिक प्राणी होथे। किसान तो सिरीफ एक जीव भर आय जउन पेट के खातिर जांगर गलात रहिथे। सुक्खा दुकाल त कभू पनिया दुकाल। इमारी बीमारी रात दिन हरहर कटकट के नाँवे किसानी आय। तिही पाय के कतको किसान खेत कोठार बेंच भांज के शहर कोति रेंगत हें ।गाँव के गौंठिया शहर मा नौकर बने बर तियार हो जथे । आजकाल के लइका मन तो खेत के मेंड़ मा रेंगे बर लजाथें, अरे! कन्हो रेंगत देख डारही त भयंकर फधित्ता नी हो जही ?
लेकिन खेती बारी के दुख पीरा बर अइसन गजब के मलहम बनाके करजा माफिया मन आज बजार मा बेचत हे ।जेकर रंग रूप महक मा जम्मो जनता मोहाय परत हें। एकर नाँवे मा जबर मोहनी समाय हे। जउन लेवत हे दीवाना बने जात हे। कतेक गुणकारी हे, कतेक असर करही ये दवई हा, एला तो लगाय के बादे पता चलही। फेर एक बात तय हे जउन ला नइ पिरात रइही वहू हा माफिया के मलहम ला जबरदस्ती चुपरही।
ये लागा बोड़ी के ताम झाम ला मैं अतेक दिन मजबुरी समझत रेहेंव, फेर बिहनिया ले बाई के ठेसरा परे हे, अभी ले मुड़ी किंजरत हे। अब तो मोला लागत हे करजा उठाना अधिकार भर नइ होय बलुक जनमसिद्घ अधिकार आय। अधिकार के उपयोग सबला करना चाही। सोंचत हँव बिना समे गँवाय सीधा बेंक जाके बोरा भर करजा उठाहुँ अउ बिदेस कोति रेंगहूँ। मनमाने करजा उठा ले आज, डर्रा झन आगे करजा माफिया राज। आखिर ये मोहनी दवई कब काम आही। का तैं मोहनी डार दिये गोंदा फूल।

ललित नागेश
बहेराभांठा (छुरा)
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