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कविता

पांच चार डरिया

१. अनचिन्हार ल अपन झन बना,
अपन ल तैं तमासा झन बना।
अपन हर तो अपने होथे जी,
अपन ल कभु दिल ले झन भगा।।
२. ढ़ोगी मन बहकावत आय हे,
बिस्वास ल जलावत आय हे।
दागत हे जिनगी के भाग ला-
गुरु-चेला ला बढ़ावत आय हे।।
३ जिनगी ह एक कीमती खजाना ये,
खरचा करे के पहिली कमाना हे।
जेन सांनति ल खोजत हच बाहिर-
मन के भीतर वोला सजाना हे।।
४. बहत नदी खोजथे -पार के ठांव,
घाम खोजथे-ठंडा-ठंडा छांव।
सुख.दुख ल जेन बने समझथे-
वो रेंगइया के नइ थकय पांव।।
५. तैं सच बोलबे ते करू लागहि,
अउ बोलबे ते गरू लागहि।
कहूं येकर गुन ल जानले ते-
तोर जिनगी हर हरू लागहि।।

डा. शंकर लाल नायक
सहा.प्राध्यापक
तुलसी, नेवरा
9926113410