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कविता

अब्बड़ सुहाथे मोला बासी

गरमी म तो गरम भात हा, खाये बर नि भाय।
चटनी संग बटकी म बासी, सिरतो गजब सुहाय।
हमर राज के विरासत ये, अउ सबला येहा सुहाथे।
ये गरमी म तन के संग म, मन हा घलो जुड़ाथे।
मिले न बासी ते दिन तो, लागे अब्बड़ उदासी।
सिरतो कहत हावौं संगवारी, अब्बड़ सुहाथे मोला बासी।।



बइला जोड़ी धरे नगरिहा अपन खेत म जाथे।
बासी खा के जुड़ छांव म तन ल अपन जुड़ाथे।
किसम किसम के अन्न उगा के, जग के करथे पालन।
परिवार अउ जग के खातिर, इखर बितथे जीवन।
अन्नदाता हा खाके बासी, करथे खेती किसानी।
सिरतो कहत हावौं संगवारी, अब्बड़ सुहाथे मोला बासी।।



बिग्यान संग ज्ञान बदल गे, ज्ञान ले अभिमान।
भुलावौ झन सन्सकरिति ल, इही हवय महान।
पूरी कचौरी नास्ता होगे, अउ पोहा संग चाय।
बोरे बासी के आघु मा, ये एकोकन नि सुहाय।
अमरित बरोबर पसिया लागे, जब खाथौं पियासी बासी।
सिरतो कहत हावौं संगवारी, अब्बड़ सुहाथे मोला बासी।।

अमित नेताम
गाड़ाघाट, पाण्डुका (गरियाबंद)
7771910692