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कविता

मोर छत्तीसगढ़ के माटी

गुरतुर हावय गोठ इहाँ के,
अऊ सुघ्घर हावय बोली।
लइका मन ह करथे जी,
सबो संग हँसी-ठिठोली।।‍
फुरसद के बेरा में इहाँ,
संघरा बइठे बबा- नाती।
महर-म‌हर ममहाये वो,
मोर छत्तीसगढ़ के माटी।।

बड़े बिहनिया ले संगी,
बासी ह बड़ सुहाथे।
आनी-बानी नी भावय,
चटनी संग बने मिठाथे।।
ईज्जा-पिज्जा इहाँ कहां,
तैहा पाबे मुठिया रोटी।
महर-म‌हर ममहाये वो,
मोर छत्तीसगढ़ के माटी।।

गैस ले बड़ सुघ्घर संगी,
चूल्हा के भात खवाथे।
घाम के दिन बादर म,
आमा के चटनी ह भाथे।।
मटर-पनीर नी मिलय,
पाबे किसम-किसम के भाजी।
महर-म‌हर ममहाये वो,
मोर छत्तीसगढ़ के माटी।।

इस्कुल ले आतेच लईका,
गुल्ली-डंडा धरके भागे।
परय नी रतिहा नींद टूरा के,
काहानी सुनेबर जागे।।
बेट-बाॅल, फुटबाॅल कहाँ,
इहाँ खेलय भऊँरा-बाँटी।
महर-म‌हर ममहाये वो,
मोर छत्तीसगढ़ के माटी।।

बरदी आये के बेरा ल‌ई‌का,
गाय-बछरू धरेबर भागे।
जाड़ घरी म जम्मो झन,
गोरसी म आगी तापे।।
संधकेरहे बेरा म नोनी,
बारे दिया अऊ बाती।
महर-म‌हर ममहाये वो,
मोर छत्तीसगढ़ के माटी।।

पुष्पराज साहू
बोईरगाँव-छुरा (गरियाबंद)