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कविता

कीरा – मकोरा

कीरा – मकोरा, पसु-पक्छी, पेड़- पउधा …
देखथन नानम जोनि ल,
अउ सोंचथन,
अबिरथा हे उंखरो जीवन,
खाये के सुख न जिये के,
सोंचे – समझे के सक्ति न भगवान के भक्ति।
का काम के हे ग अइसनों जिनगी?
बेकार हे, बोझ हे।
अउ उमन देखत होहीं जब हम ल,
सोंचत होहीं-
कीरा – मकोरा ले गेये बीते हे जिनगी मनखे के।
खाए के सुख न जीये के,
सोंचे के सक्ति न समझे के।
हाय- हाय, खाली हाय -हाय
संझा ले बिहिनिया तक,
बिहिनिया ले सांझ तक।
लदे रहिथे भय,भूख,भाव ले चौबीसो घंटा,
खुद के वजन ले जादा
अउ भागत रहिथे
सड़क म सरपट, जइसे कुदावत हे कोनों।
भागत रहिथे सकल के पाछु, नकल के पाछु।
भेड़िया धसान बस!
सोचै नहीं, समझै नहीं कुछु, कभू,
खुद के बारे मे घलो।
परबुधिया हे बिल्कुल।
बस सोंचते रहिथे दूसर के बारे मे।
सोंचथे का? जलत रहिथे।
जीथे घलो त दूसर बर, देखाये बर दूसर ल,
घर-दुआर, खेत- खार, पइसा, रुतबा…
सिकायत, खाली सिकायत।
उदास, हरदम उदास।
राम न आराम
काम, खाली काम।
जब देखबे तब,
जिंहे देखबे तिन्हे
भागत, दउड़ – भाग करत
बलबल- बलबल
कीरा – मकोरा जस।

केजवा राम साहू ‘तेजनाथ’
बरदुली,पिपरिया, जिला- कबीरधाम
9479188414,
7999385846
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