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कविता

चलनी में गाय खुदे दुहत हन

चलनी में गाय खुदे दुहत हन
कईसन मसमोटी छाय हे,
देखव पहुना कईसे बऊराय हाबै।
लोटा धरके आय रिहीस इहाँ,
आज ओकरे मईनता भोगाय हाबै।
परबुधिया हम तुम बनगेन,
चारी चुगली में म्ररगेन।
छत्तीसगढिया ल सबले बढिया कीथे,
उहीं भरम में तीरथ बरथ करलेन।
भाठा के खेती अड़ चेथी जानेंन,
खेती बेच नऊकरी बजायेन।
चिरहा फटहा हमन पहिरेन,
ओनहा नवा ओकरे बर सिलवायेन।
लाँघन भूखन हमन मरत हन,
दांदर ओकरे मनके भरत हन।
हमर दुख पीरा हरय कोन,
बिन बरखा तरिया भरय कोन।
सांप के मुंडी करा,
हमर मन के झुलेना होगे।
मारथे फुफकार त कीथन,
भागव कपसे के अब बेरा होगे।
सियनहा मन कीथे,
जेकर खाय, तेकरे गुन गाव।
पहुना मनके ईहाँ उलटा हे नियाँव,
जौन में खाव उहीं पत्री ल छेद लगाव।
चलनी में गाय खुदे दुहत हन,
करम ल कोश जर मरत हन।

ठिनिन ठिनिन घंटी बजाके,
मुड़ी ल धर बईठ रोवत हन।
पहुना बर ऊचहा पाटा रखलौ,
नगात खात हे तेकर खाता रखलौ।
हरहिंसा चरन मत दव,
बाँधे बर गेरवा अऊ फाटा रखलव।

विजेंद्र वर्मा अनजान
नगरगाँव (धरसीवां)