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किताब कोठी महाकाव्‍य

गरीबा : महाकाव्य (नउवां पांत : गंहुवारी पांत) – नूतन प्रसाद शर्मा

शोषण अत्याचार हा करथय हाहाकार तबाही।
तब समाज ला सुख बांटे बर बजथय क्रांति के बाजा।।
करंव प्रार्थना क्रांति के जेहर देथय जग ला रस्ता ।
रजगज के टंटा हा टूटत आथय नवा जमाना ।।
गांव के सच वर्णन नइ होइस, फइले हे सब कोती भ्रांति
जब सच कथा प्रकाश मं आहय, तभे सफलता पाहय क्रांति.
लेखक मन हा नगर मं किंजरत, रहिथंय सदा गांव ले दूर
संस्कृति कला रीति जनजीवन – इंकर तथ्य जाने बस कान.
तब तो लबरइ बात ला लिखदिन, उंकर झूठ ला भुगतत आज
रुढ़ि बात मं संसोधन तब, ठीक राह चल सकत समाज.
एक व्यक्ति हा जेला लिख दिस, दूसर घलो धरिस ओ पांत
जग समाज परिवर्तन आईस, ओकर ले लेखक अनभिज्ञ.
याने गांव के नाम मं शोषण, खूब करिन साहित्यिक लूट
चलत पाठ्य पुस्तक मं रचना, जमिन विश्वविद्यालय खूब.
कई संस्था ले ईनाम झोंकिन, मरगें तभो अमर हे नाम
खुद ला मुंह मं छोटे बोलिन, लेकिन बड़े बड़े पद पैन.
“”होत गंवइहा भोला सिधवा, गांव बिराजत हे सुख शांति
ऊपर लिखित बात जे बोलिन, अमृत कल्पवृक्ष असझूठ.
देहाती मन मांग करंय झन, शासन के झन करंय विरोध
भूले रहंय प्रशंसा भर मं, भले यथार्थ कष्ट ला पांय.
गांव के दुख विपदा जे होथय, ओहर रोवत करुण अवाज
शासन ओकर बिपत सुनय नइ, कान मं राखे रुई ला गोंज.
गांव निवासी गिरा पसीना, जांगर टोर बजावत काम
पर भोजन घर कपड़ा कमती, बिना लहू के गुजगुज देह.
“वातावरण शुद्ध गुणकारी’ अइसन बात किहिन कवि सूम
मगर हवा भर जिया सकय नइ, जीवन यज्ञ अन्न के हूम.
गंदा राजनीति अगुवागे, शिक्षा ज्ञान हा पिछवा गीस
दुरमत गांव लड़त आपस मं, कइसे आवय प्रगति विकास !
गांव के पंचायत परपंछी, ओहर कंस शत्रुता बढ़ात
शासन गांव मं फूट करावत, अपन निघरघट राज चलात.
बिरता रुख राई हे हरियर, पर भीतर मन धधकत आग
मनसे मुश्किल मं दिन काटत, माली बसथय उजड़त बाग.
कुकरा बासत मुड़ी उठाके, कोलिहा गीस सुना के राग
पहती समय आलसी सोये, मिहनत करत मिहनती जाग.
भुकरुस भुकरुस ढेंकी बाजत, कूद कूद के कूटत धान
बाहिर बट्टा ले लहुटिन अउ, तिरिया घर मं मारत लीप.
जे बालक हा बिफड़ के रोवत, वृद्धा मन भुरियात मनात
बासी नून पिसान ला सानत, गांकर ला थोपत रख हाथ.
तंह मोहलैन पान मं मोड़त, अंगरा राख करत हे सेंक
गांकर ला कुटका मं टोरत, लइका मन ला देवत खाय.
खटिया त्याग सनम उठ जाथय, मुंह ला धोके चलदिस खेत
धरे कुदारी झौंहा रापा, आये नेत चिंड़ा उपकाय.
मेड़ पोचक खाल्हे बइठे हे, करना हवय मेड़ ला ऊंच
भूमि कन्हार भोंक होवत कइ, भोंक मुंदा के जल रुक जाय.
माटी कोड़ चढ़ावत ऊपर, मेड़ सजावत ढेला चाल
सुर्हलू रचत पिरामिड जइसे, जेमां झन खसलय कई साल.
सनम करिस नंगत अक महिनत, ओकर बाद छोड़दिस खेत
गांव मं झंगलू हा मिल जाथय, जेहर शाला जात पढ़ाय.
कतको झन ले ऋण मांगे हे, लेकिन पटा सकत नइ कर्ज
जीवन हा निकलत चंगुरे अस, साहूकार कहत- बइमान.
“शिक्षक आय राष्ट्र निर्माता’ मात्र छलावा झूठा गोठ
जब आर्थिक स्थिति ठसलग नइ, देश नेव बिन दरके कोठ.
सनम कथय -“”बिलमे बर कहिहंव, पर बिलमे बर करबे ढेर
हे तड़तड़ी जाय बर शाला, रुकबे अगर शिकायत होत.”
झंगलू कथय -“”ठीक बोलत हस, तंय जानत जनता के हाल
पटवारी ला मित्र बनाथय, पर शिक्षक के खींचत खाल.
पटवारी हा रुपिया लेथय, ऊपर करथय काम अवैध
ओकर कुछ बिगाड़ नइ होवय, ऊपर ले अमरात सलाम.”
झंगलू पहुंचिस समय मं शाला जिंहा हवंय विद्यार्थी ।
बइठे हें भुंइया ऊपर ऊंकर तिर कलम न पट्टी ।।
झंगलू पढ़ई करावत मरमर, रख दिस जोड़ घटाय सवाल
छात्र थुकेल थथमरा जाथय, ओकर तिर नइ कलम न स्लेट.
झंगलू हा गोंटी मंगवाइस, गोंटी गिनत हवंय अब छात्र
जोड़ घटाय के प्रश्न ला राखत, गोंटी ला गिन उत्तर देत.
शिक्षक किहिस -“”साठ ठक रुपिया, ओमां खर्च बीस ठन नोट
कतका रुपिया हाथ मं बांचत, एकर तुम सच उत्तर देव ?”
धरिस थुकेल साठठक गोंटी, गोंटी बीस अलग कर दीस
गोंटी शेष हवय चालीसा, ओला उत्तर मं ढिल दीस.
झंगलू हा देवत शाबासी -“”तुम्हर लगन हा खुश कर दीस
भले पाठ्य सामग्री कमती, पर तुम पढ़त बढ़ा के चाव.
जीवन मं अभाव हा आथय, ढचरा झन मारय इंसान
आय काम पूरा होवत तब, लक्ष्य पूर्ण पावत संतोष.”
तभे तीन ठक डाक आ जाथय, जेकर उत्तर मंगे तड़ाक
झंगलू हा पढ़ाय बर छोड़िस, डड्ढा खींचत रगड़ के नाक.
शिक्षक परेशान हे नंगत, आत नित्य शासन के डाक
अन्य काम हा समय ला खावत, पर शिक्षा बर समय अभाव.
शिक्षक डाक बनाय बिधुन हे, कूदत छात्र करत हें नाच
बाहिर भागत मांग के एक्की, सड़क डहर किलकत चिल्लात.
झंगलू हा सब छात्र ला बोलिस – “”तुम बालक मन चंचल खूब
एकोकन थिरथार रहव नइ, झगरा करथव चिलचिल कूद.
होत बालक्रीडा प्रतियोगिता, भर उत्साह लेव तुम भाग
स्पर्धा मं विजय अमर लव, मंय हा रखत तुम्हर पर आस.
पूर्वाभ्यास करव मिहनत कर, ऊंचीकूद अउ बोरादौड़
खेल करव या पल्ला दउड़व, पर सब होय नियम के साथ.”
लइका मन के मन हा आगर, जे चाहत ते खुद मिल गीस
खेल करे के साध मिटत हे, स्पर्धा बर पूर्वाभ्यास.
पहुंचिस गुहा हा झंगलू तिर मं, किहिस -“”इंहा शिक्षक दू ठोक
मगर कहां शिक्षिका जगौती, ओकर दर्शन तहु कर लेंव.
मंय थुकेल ला धर लेगत हंव, ओहर इंहा पढ़त नइ पाठ
ओला इंहा बिगाड़त हव तुम, होत छात्र के भावी नाश.”
कुरबुर करत गुहा हा मन मन, धरिस थुकेल के कंस के हाथ
शाला ले रकमिका के निकलिस, अउ आ गीस सड़क के पार.
गीस ग्रामपंचायत घर तिर, जिंहा कृषक मन हें सकलाय
देखत तहसीलदार के रद्दा, पर नइ आवत तहसीलदार.
बंजू मन हा खेत खरीदिन, होय रजिस्ट्री उंकर जमीन
मगर प्रमाणीकरण हा अटके, खाता मं लिखाय नइ नाम.
पटवारी, बंजू ला बोलिस -“”चहत प्रमाणीकरण हा होय
तुम्मन ओकर खरचा लानव, तंह मंय करिहंव तुम्हर सहाय.
साहब ला मंय रुपिया देहंव, ओहर दिही दस्तखत दान
पूर्ण प्रमाणीकरण के बूता, तुम्हर नाम चढ़ जहय जमीन.”
बंजू मन हा रुपिया गिन दिन, पटवारी पर हे विश्वास
घूंस लेत अउ देत उहां पर, पर कोई नइ करत विरोध.
अब किसान तिर काम हा नइये, शाला डहर ध्यान ला दीन
अब झंगलू के मजा चखाहंय, घोड़ा रोग बेंदरा पर गीस.
सुखी कोचक के उभरावत हे -“”मोर बात ला सब सुन लेव
झंगलू शिक्षक छात्र बिगाड़त, समय ला काटत गपशप मार.
शाला तनी दृष्टि ला फेंकव, खेलत छात्र पढ़इ ला त्याग
अंदर मं झंगलू हा सोवत, टेबल ऊपर रख के गोड़.
शिक्षक हा कर्तव्य ले भगथय, ओला गांव मं राखन कार !
ओकर स्थानांतर होवय, तभे छात्र मन के उद्धार.”
झंगलू के विरुद्ध मं लिख दिन, जमों किसान शिकायत पत्र
शिक्षक हा कर्तव्य निभावत, तब ले ओकर होत विरोध.
धनवा डकहर करत कुजानिक, ओकर झंगलू करत विरोध
सुखी अउ डकहर बल्दा लेवत, करत नमूसी कालिख नाम.
झंगलू जहां खबर ला पाइस, होवत मन मं दुखी उदास
छुट्टी बाद अपन घर जावत, मेहरूपहुंचिस ओकर पास.
कहिथय -“”एक बात सोचे हंव – कवि मन ला मंय चहत बलाय
कवि सम्मेलन गांव मं होवय, तंय रख सकथस अपन विचार.”
झंगलू कहिथय -“”मंय खुश होवत, बोले हवस बात तंय ठीक
मगर गांव के स्थिति नाजुक, मुड़ पर रुसी अस दुख राज.
साफ दृष्टि से यदि हम देखत, होय बंद धार्मिक त्यौहार
कवि मन ला यदि करत निमंत्रित, परिहय खूब खर्च के मार.
एक घांव सोनू हा लानिस, इहिच गांव मं कई विद्वान
सुन्तापुर के पुरिस ठिकाना, बिकगे बर्तन अन्न मकान.”
मेहरूकथय -“”जेन कवि आवत, ओमन नइ मांगत कुछ खर्च
मात्र पेट भर जेवन मांगत, अतका मं परिहय का फर्क!”
झंगलू हा स्वीकृति फट देथय -“”नेकी कर झन कर पुचपूच
लुकलुकात ग्रामीण सबो झन, पर ओमन ला पहिली पूछ.”
झंगलू पुन& कथय मेहरूला -“”हम राखे हन जे उद्देश्य
“सुम्मतराज’ गांव मं आवय, पांय सबो झन सुख आनंद.
धनवा हा विरोध मं जावत, ओकर बात उमंझ मं आत
पर विडम्बना हे एके ठन. ओला मंय फोरत हंव साफ-
गांव मं बन्जू अस अउ मनखे, जेकर जीवन हा कुछ ऊंच
ओमन सोचत- हम पूंजीपति, हम्मन आन अचक धनवान.
हवय जरुरत जिनिस हा पूरा, ककरो पास मंगन नइ भीख
हर प्रकार ले हम सक्षम हन, हमर ले बढ़के दूसर कोन !
हमर बाढ़ देखत कंगला मन, तंहने उंकर जलन बढ़ जात
हम्मन ला कंगला होवय कहि, कइ योजना बनावत रोज.”
झंगलू फेर कथय मेहरूला -“”मोर बात सुन बन गंभीर
बंजू मन हा पूंजीपति नइ, न ओमन धनवान विशिष्ट.
ओमन भ्रम रद्दा मं रेंगत, एकर ले सब लक्ष्य हा नाश
धनसहाय हा लाभ ला पाहय, जनता ला नंगत नुकसान.
सुम्मत राज लाय बर सोचत, एकर पूर्व होय ए काम
बंजू मन के भ्रम मिट जावय, ओमन करंय हमर सहयोग.”
मेहरूपैस सलाह बने अस, उहां हे हटथय छुट्टी मांग
थोरिक ओहिले मिलिस गरीबा, जेहर खसर खुजावत जांग.
मेहरूखलखल हंस के कहिथय -“”तोला कब के खजरी होय
एकर दवइ करा तंय झपकुन, काबर चुप बइठे कंजूस!”
“”बिन श्रम रचना पढ़ धन झोरत, भरत अपन घर देश ला लूट
तोला हरियर तगवा सूझत, तब तंय पर ला एल्हत खूब.
वन के पशु हा खेत मं घुसरत, बिरता के करथय खुरखेद
हम किसान पर आत मुसीबत, ओकर हिरक देखइया कोन !”
अभी गरीबा अउ ओरियातिस, मेहरूबीच मार दिस छेंक
सुनिस गरीबा तंह खुश होवत, करदिस हरहिंछा स्वीकार –
“”हमर गांव मं कवि मन आवत, ओमन देहंय नेक सलाह
भ्रम अंधियार के नसना टुटिहय, हम्मन धरबो उत्तम राह.”
मेहरूकिहिस गरीबा ला अउ -“”सुम्मत राज के लेवत पक्ष
एकर बीच बिघन हा आवत, तंय जासूस असन रख ध्यान.
भरे उच्चता बंजू मन मं, उंकर उच्चता होय समाप्त
पर ए काम बहुत कठिनाई, तंय कर पूर्ण बुद्धि के साथ”
कथय गरीबा -“”मोरो ला सुन, तंय हा जानत सब सिद्धान्त
पूंजीपति के परिभाषा अउ, ओकर जीवन कर्म विचार.
बंजू मन हा गलत दिशा पर, धोखा देखत धोखा खात
एमन ला तंय रद्दा पर कर, तोला नेमत समझ समर्थ.”
चना रखे बर चलत गरीबा हवय तड़तड़ी बेरा ।
ओहर अपन खेत मं पहुंचिस जानत उहां के चाला ।।
चना के फर हा फरे हे लटलट, अंदर के दाना हे पोख
पेटमंहदुर जब सक भर जेवत, पेट हा तनथय गोलमटोल.
पेड़ हा फर ला यदपि सम्हालत, मगर बोझ मं केंघरत खूब
पाना कुछ हरियर कुछ पिंवरा, तरी डहर खोंगसत हे डार.
झाला बने तिकोना एक ठक, जेमां टट्टा पत्ता छाय
कोदो पयरा बिछे हे अंदर, वातावरण गरम बन जाय.
झाला के तिर गीस गरीबा, आगू मं सिपचाथय आग
दरी बिछा के तिर मं बइठिस, थोरिक रहिके आगे रात.
होरा भूंज मुसुर मुस खावत, चना गंहू ला रंमजत फोर
जहां पेट हा दलगिरहा अस, तभे खवई ला करथय बंद.
गावत हवय ददरिया सुर कर, हो हो हात हात चिल्लात
आग बुझिस तंह जाड़ बियापत, उरसा दरी ला ओढ़िस खींच.
आवत जम्हई नींद हा चमकत, उसल गरीबा टहलत खेत
प्रेमचंद के “हल्कू’ नोहय, जे बूता तज सुतय बिचेत.
जे दिन कृषक हा मिटका सुतही, तज पुरुषार्थ काम ला छोड़
दुनिया धारोधार बोहाहय, जीवन चलत तेन हा लाश.
सीमा रक्षा करथय सैनिक, उसने ए बिरता रखवार
ओरखिस कुछ आवाज गरीबा, टंहकत टंच होत तैयार.
उरउर कर बरहा दल निंगतिस, राहिद उड़तिस ठाढ़े खेत
टोंटा फार गरीबा हांकिस, बरहा मन पर परय प्रभाव.
हुरहा डर के बरहा भागत, पर थमगे अंड़ियल नर एक
मुड़ ला निहरा तान के खीसा, बढ़िस गरीबा तन अरि देख.
भिम करिया ताकत फुर्तीला, बिकट निघरघट हिम्मत खान
दउड़ गरीबा ला पहटातिस, हटिस गरीबा जान बचाय.
बरहा दूर भाग के लहुटिस, ताकत लगा उधेनिस ताक
खेत के रक्षक बच नइ पाइस, ऊपर उड़के गिरिस दनाक.
उठिस गरीबा बरन चढ़ाके, जोश हा बाढ़त बाघ समान
झाला अंदर दउड़ के अमरिस, धरहा टंगिया ला धर लैस.
बरहा हा फिर तिर मं पहुंचिस, भिड़िस गरीबा बरहा साथ
टंगिया उठा के बल भर मारिस, होय शत्रु के बिन्द्राबिनास.
उद नइ जरा सकिस एक टंगिया, बरहा दउड़िस अउ कर जोम
तब फिर काबर हटय गरीबा, अपन देह ला देवत होम.
गदामसानी पटका पटकी, एक के ऊपर अन्य सवार
एकोकन अराम नइ लेवत, करत हवंय दुश्मन ला मात.
बरहा घायल घाव पिरावत, लहू गिरत अउ मरत थकान
आखिर जान बचा के भागिस, पीठ देखा के तज मैदान.
घायल होय गरीबा हा खुद, पल पल बाढ़त घाव के पीर
सांस हा धुंकनी असन फेंकावत, कहुंचो जाय खतम सब जोश.
रुकिस गरीबा बड़े फजर तक यद्यपि तन भर पीरा ।
बाद अपन घर जाथय तंहने दुखिया हा घबरागे ।।
पूछिस -“”तोला कोन दमोरिस, सुनंव भला दुश्मन के नाम
लहू चुहक के सेठरा करिहंव, रस चुहका सेठरावत आम.”
जब कई बखत पूछथय दुखिया, तंहा गरीबा सच कहि दीस-
“”दूसर ऊपर शंका झन कर, मंय हा स्वयं करे अपराध.
होय वन्य प्राणी हा रक्षित, ओकर पर झन होय प्रहार
शासन हा कानून बनाये, जमों व्यक्ति के इहिच विचार.
लेकिन मंय हा करे उदेली, बरहा ला घायल कर देंव
कथनी मं हम बनत संरक्षक, पर करनी मं हिंसक आन.
मगर मोर पर हमला करदिस, बदला मं मंय युद्ध करेंव
अपन सुरक्षा बर झगड़े हंव, एकर कारन मंय निर्दाेष.”
दुखिया घाव के रकत ला धोइस, खुद भिड़ के करथय उपचार
करिस गरीबा हृदय ला कट्टर, सहत हवय चुप दरद अपार.
दवई लगात दवई तक खावत, माड़त पीर भरत हे घाव
दुखिया अउर गरीबा, दूनों, गूढ़ रहस्य करते हें बात.
दुखिया बोलिस -“”तंय सच फुरिया – तुम धनवा के करत विरोध
तुम पूंजीपति मन ला देवत, अत्याचारी शोषक रुप.
ऊंकर सत्य चरित्र ला गोठिया – प्रतिभाहीन घृणित बेकार
अनुकरणीयहीन या स्वार्थी, खलनायक अस अवगुण खान ?”
कथय गरीबा -“”पूंजीपति मन, अपन लक्ष्य पर रखत इमान
मात्र कर्मनिष्ठ होथंय तब, आत सफलता ऊंकर हाथ.
महिनत करथंय उन्नति खातिर, असफलता ला शत्रु बनात
ओमन लफर लफर नइ लूवंय, कर्म बुद्धि ले बनथंय श्रेष्ठ.
जेहर बइठे ऊंचा पद पर, या फिर दूसर ले विख्यात
एकर अर्थ योग्य हे ओहर, अनुकरणीय हे ओकर काम.
लेकिन उंकर विरोध ला करथन, एकर कारन सुन ले साफ-
स्वार्थ पूर्ति बर पूंजीपति हा, पर के हित के करथय हानि.
मीठ बात कर दिग्भ्रम करथय, ताकि ढंकाय स्वयं के पोल
खुद ला आसमान तक लेगत, पर ला गाड़त नरख पताल.”
इही बीच धनवा हा पहुंचिस, जेकर मुंह पर मित्र के भाव
हाथ मिलात गरीबा के संग, हृदय कलुष के भाव ला फेंक.
ओकर स्वागत करत गरीबा, दुरिहा फेंकिस मन के रंज
सहपाठी हा खुद आए तब, बात करत दूनों झन हांस.
खेत के बात ला धनवा जानत, करत गरीबा के तारीफ-
“”तंय हिम्मती बुद्धिशाली अस, आत्म सुरक्षा ला कर लेस.
बिरता रक्षा काम कठिन हे, राहिद उड़ा देत पशु कीट
मनसे घलो चोरा के लेगत, तभे कृषक के जीव हताश.
मंय हा नौकर मन ला भेजत, फसल ला राखंय बन रखवार
चना गंहू के होरा खाथंय, हर्षित होथंय करके हानि.
जब मंय हा विश्वास करे हंव, नौकर बना के राखेंव पास
ओमन मोला धोखा देवत, मोर जिनिस ला चोरा के खात.”
निहू पदी बन कथय गरीबा -“”होरा ला नौकर मन खात
खाय जिनिस भर ला खावत हें, एहर कहां बड़े जक घात !
चोरी के तंय दोष ला डारत, लेकिन स्वयं आस तंय चोर
तंय चोराय हस परके हक ला, तब तंय चोर के मुखिया आस.
मोर सलाह मान ले मितवा- सब के हक ला वापिस बांट
सुम्मत के पीढ़ा पर बइठन, एकछत्र हा होय समाप्त.”
धनवा कथय -“”रचिस ईश्वर हा, कंगला पूंजीपति के भेद
यदि मिटाय बर कोशिश करथन, तब प्रतिक्रांति के बाजत शंख.
पूर्वजन्म मं पूण्य करे हन, तेकर फल ला पावत आज
हमर धनदोंगानी हा बाढ़त, एकोकन नइ होत अभाव.”
“”ईश्वर पर तंय दोष लगा झन, ओकर बर सब एक समान
अपन प्राकृतिक वस्तु ला देथय, करंय सबो झन सम उपयोग.
वाद विचार धर्म धन पूंजी, जतका किसम के होवत भेद
एमन ला मिलजुल के ढकलत, तंहा खतम हो जाथय भेद.”
धनवा अउर गरीबा जानत, दुनिया भर के हर सिद्धान्त
पर ईश्वर के नाम मं झगरत, इही वाद के कथा अगम्य.
जब दिग्भ्रमित करे बर होथय, तंह ईश्वर ला लानत बीच
वाजिब बहस नंदा जाथय तंह, खुद के जिद्द करत हें पूर्ण.
कथय गरीबा -“”अब तक राखे, अपन बहस मं छिछला तर्क
मगर ठोस चर्चा अब होवय, जेकर मिलय सुखद परिणाम.
तंय हा जमों वाद के ज्ञाता, जानत हस विकास के रुप
तब ले तोर मं जे शंका हे, मंय मेटत रख तर्क सटीक.
सुम्मत राज लाय बर सोचत, ओकर गुन योग्यता बतात
तंहू कान ला टेंड़िया के सुन, ताकि हृदय से कर स्वीकार.
सब के भावी पूर्ण सुरक्षित, सब झन पांय अपन अधिकार
ना नायक ना खलनायक हे, ऊंच नीच ना धनी गरीब.
जउन व्यवस्था लाने चाहत, समाजवाद ले अउ उत्कृष्ट
मनसे के वर्चस्व हा कायम, पर शोषण करे बर असमर्थ.”
धनवा कथय -“”जउन तंय बोलत, ओमां दिखत मोर नुकसान
मंय समाज मं उच्च प्रतिष्ठित, नीचे गिरिहय स्तर मोर.
गांव क्षेत्र मं जतका मनखे, ओमन निहू मोर ले आंय
मोर ले ओमन रुतबा कंसिहंय, मोर अतिक पाहंय पद मान.”
कथय गरीबा -“”भ्रम पाले हस, सुम्मत राज हा सुख के राज
जे वर्चस्व तोर अभि हावय, तंय पाबे अउ आसन ऊंच.
वर्तमान मं बनत हेरौठा, सब झन दिहीं हृदय ले मान
तोर पुत्र मनबोध जे हावय, ओकर तक भावी हा साफ.
जेन व्यवस्था मं जीयत हस, ओहर घेर रखे अंधियार
साफ दृष्टि ले तथ्य ला जांचव, कटिहय भ्रम के करिया रंग.”
धनवा कथय -“”दिखत हे धोखा, मंय नइ मानंव तोर सलाह
काम पूर्ण तक लालच देवत, तंहने कष्ट दुहू तुम बाद.”
“”तंय हा खुद ला धोखा देवत, दुख ला स्वयं निमंत्रण देत
जे मनसे हा रथय अजरहा, दवई ला मानत जहर समान.
सुघर व्यवस्था अस्वीकारत, पर जब परिहय खूब दबाव
कतको ताकत ले तंय लड़बे, लेकिन सुम्मत राज के जीत.
लाहो लेवइ बंद कर तंय हा, निकलत सदा दुखद परिणाम
घालुक रिहिस हठील तउन हा, बद्दी पाइस तन तक दीस.”
उंकर मंझोत पहुंचथय कातिक, बनके उग्र देखावत क्रोध
धनवा के छट्ठी ला गिनथय, सातो पुरखा पानी डार.
कहिथय -“”मोरेच बाप तिजऊ हा, खटिस तुम्हर घर मर के भूख
बिपत झेलना मुस्कुल होगे, करिस आत्महत्या खुद हाथ.
मंय हा सेवा तोर करे हंव, पर फल मं अभाव ला पाय
वाकइ तंय गरकट्टा घालुक, मोला देस मरत तकलीफ.
तोर नौकरी छोड़ डरे हंव, तोर ले अब लेहंव प्रतिशोध
खुंटीउजार तोर करिहंव तब, मोर हृदय ठंडक संतोष.”
धनवा हा बोकबोक देखत अउ, कथय गरीबा ला भर क्लान्त-
“”सुम्मत राज गांव ले बाहिर, मगर देखात रुप ला रौद्र.
तोर हाल ला मंय जाने बर, इहां आय हंव समझ मितान
पर कातिक ला खुद हा उचका, मोर हइन्ता ला करवात.
तोला जउन जिनिस आवश्यक, मोर पास तंय खत्तम मांग
मगर विरोध मोर झन होवय, एकर याद सदा बर राख.”
धनवा हा लालच देवत हे, ताकि पक्ष होवय मजबूत
मगर गरीबा हा कुछ छरकत, ताकि पूर्ण होवय उद्देश्य.
कथय गरीबा -“”जिनिस मांगहूं, लेकिन ओकर बर कुछ टेम
तोर मोर सब भेद मेटावय, एकर किरिया पहिली खान.”
धनसहाय हा उहां ले हटथय मन मं छुपे हे गुस्सा ।
कातिक के तेवर ठंडा तंह बोलत हवय गरीबा ।।
“”मुंह फरका गारी बक देना, ए नइ आय क्रांति के राह
शांत बुद्धि – मुंह ला चुप राखव, पहुंच सकत तब निज गंतव्य.
जेकर तिर नइ शक्ति लड़े बर, जेन निकम्मा कायर जीव
अपन दोष ला चुप दोबे बर, आंख लालकर क्रोध देखात.
असली भेद आज फोरत हंव, लेखक लिखिन गलत इतिहास-
देशभक्त मन उग्र लड़ंका, जोश मं उबलय ऊंकर खून.
गोरा मन हा देश ला छोड़ंय, दीन क्रांतिकारी मन धौंस
बम ला पटकिन जीवन ला लिन, तभे देश हो सकिस अजाद.
पर ऊपर के तर्क मं गल्ती, सच स्थिति फोरत मंय तेन-
रिहिन क्रांतिकारी मन ज्ञानिक, क्रोध उग्रता अति के शत्रु.
जेन बुता ला करना होवय, बइठक करंय शांत गंभीर
स्थिर बुद्धि पांव ला लेगिन, तब हो सकिस पूर्ण उद्देश्य.
अब जग मं परिवर्तन होवत, विश्वयुद्ध खतरा घटगीस
शांति बुद्धि हा महिनत जोंगिस, मानव ला दिस जीवन दान.
क्रोध के दृष्य दिखाना होथय, लिखना होत भयंकर युद्ध
लेखक शांत बुद्धि ला रखथय, तब वर्णन कर सकत सटीक.”
कातिक कथय -“”लुवत हस पुटपुट, मगर मदद बर मुंह ओरमात
मंय नौकरी छोड़ डारे हंव, बिन अनाज मंय पावत कष्ट.”
कथय गरीबा -“”सुख अमरे बर, करना परत बहुत बलिदान
मोर पास ले अन्न लेग अउ, जीवन सरका कर कम खर्च.
यद्यपि मदद देत हंव तोला, पर एकर ले दुष्परिणाम
गलत परम्परा कायम होथय, सुधर पाय नइ गिरे समाज.
हाथ लमाय जहां सीखत हे, झांकत हे बस पर के द्वार
काम करे बर जीव चोराथय, पर ला करत रथय बस तंग.
चोरहा मन के पक्ष ला लेवत, लेकिन यहू प्रथा निंदनीय
जुरुम करे बर साहस बाढ़त, नष्टभविष्य फंसड़ कानून.
एक दीन हा करत कुजानिक, पर दूसर हा फल ला पात
वाजिब दुखी मदद नइ पावय, मरत फसल तरसत बिन नीर.
यने एक ले धोखा खावत, सब ले उड़ जावत विश्वास
धोखादार सबो ला समझत, मदद करे बर झींकत हाथ.
सुन कातिक, मंय केंघर बतावत, एला झनिच समझ उपदेश
बन गंभीर बात ला पतिया, तथ्य हा गुरमटिया अस ठोस.
काबर के समाज के अरि हा, हवय धनी दानी विद्वान
गुन अवगुन छल निक सच झूठा, जमों चाल मन ओकर पास.
लालच फूट प्रेम भय दिखला, भ्रष्ट करे बर पूर्ण समर्थ
हर आकर्षण ले जब बचिहव, तब दुश्मन के चाल नकाम.
हमला ओहिले तन चलना हे, सफल बनाना हे उद्देश्य
सब तन टंहकत जासूसी कर, गलत चाल रेंगय झन पांव.”
दीस गरीबा हा कातिक ला अन्न एक भर बोरी ।
कातिक अन्न पकड़ के रेंगत सोचत भावी रद्दा ।।
उठना चहत गरीबा हा अब, तभे पहुंच गिन कई विद्वान
उंकर सुवागत करत गरीबा, मुंह मं वाजिब खुशी ला लान.
जीवनयदु अउ भीखमबैष्णव, रामेश्वरबैष्णव गोपाल
श्यामलाल अउ मुकुन्दकौशल, मिथिलेशशर्मा रमेश अधीर.
दानेश्वरशर्मा तक पहुंचिस, कवि हाजिर तेमन विख्यात
ऊंकर सादा नर्बदा जीवन, पर ऊंचा हे कर्म विचार.
मेहरूसब के परिचय देइस, होत गरीबा बहुत प्रसन्न
कवि मन के स्वागत हा होवत, मनसे मन पहुंचिन भन भन्न.
अलग जगा भीखम ला लेगिस, मेहरूमांगिस उचित सलाह-
“”तुम्हर खाय बर काय पकावन, अपन विचार साफ फुरियाव ?”
खांध हाथ रख भीखम बोलिस -“”हमला झन मानो मेहमान
जे मिलिहय खाबो हरहिन्छा, जमों जिनिस के करथन पान.”
सब ग्रामीण पास पहुंचिन तब, कवि मन ढीलत मीठ जबान
उंकर हाल ला कोड़ के पूछत, उबरे बर बतात हें राह.
कवि मन किंजरत खेत नार चक, जांच करत बिरता के हाल
भोजन चुरिस ज्ञात होथय तंह, अपन ठिंहा मं आथंय लौट.
सनम बिछावत टपटप पतरी, रखत गरीबा जल के ग्लास
मेहरूपरसत झपझप जेवन, कमी होत नइ ककरो पास.
जीवन यदु हा हांसत बोलिस -“”हम खावत कई किसम के चीज
पर सुन्तापुर मं आये हन, लान गांव के प्राकृतिक चीज.
सुक्सा भाजी – अमारी भुरका, करील चटनी – खोइला साग
घोंटो – गांकर – सुखड़ी खुटरी, बोबरा – चंउसिला – महुवा राब.
जेन जिनिस हम पहिली खावन, पर एमन दुर्लभ हें आज
यदि एकाध सहेज के राखे, देव खाव बर तज के लाज.”
परसइया मन मुरझुर होगिन, पर दुखिया के मुंह पर हर्ष
हेरिस तुरुत अमारी भुरका, पानी मं कर लिस झप गील.
मिरी नून लहसुन अउ धनिया, ओमां मेल करिस हे पीस
तंहने अमसुर चटनी बनगे, जेहर देवत सुघर सुगंध.
दुखिया अपन हाथ मं परसिस, कवि मन जेवत स्वाद के साथ
आत्मा जूड़ उदर भरगिस तंह, ठंव ले उसल के धोइन हाथ.
समाचार धनवा तिर पहुंचिस, बोलत हे बन्जू के पास-
“”हमर गांव मं जे कवि आये, इनकर कहां उच्च सिद्धान्त !
जे सपड़िस सोसन भर खालिन, हिन के जिनिस करिन नइ दूर
हवय गिदिरगादर अस जीवन, एमन भुखमर्रा कंगाल.
हमर ददा के पहरो पहुंचिन, ख्याति प्राप्त उद्भट विद्वान
ओमन ला परसेन खाये बर, स्वादिल जिनिस बहुत पकवान.
ओमन उत्तम चीज ला झड़किन, तब तो बता सकिन गुण ऊंच
जे उपदेश दीन मिहनत कर, उच्च समाज ग्रहण कर लीस.
पर अभि जे कवि आये तेमन, इनकर जीवन निम्न समान
कहां उच्च सिद्धान्त ला कहिहंय, कविता रखिहंय गलत विचार.”
बन्जू देवत हवय हुंकारू-“”धनवा, तंय बोलत हस ठीक
कवि आये हें तेमन रड़ हें, लीन अमारी भुरका बोज.
हमर पास यदि एमन आतिन, हमर पास पूरन सब चीज
ऊंकर मन के जेवन देतेन, अउ ऊपर रुपिया के दान.”
धनसहाय अउ बन्जू मन हा, कवि मन ला एल्हत हें खूब
ओतन कवि सम्मेलन हा अब, लुकलुकात होवय प्रारंभ.
मंच बने हे शाला के तिर, जेकर जगह बहुत मेल्लार
आमा लीम जाम पत्ता मं, मंच के ऊपर छिद्र ला छाय.
कविता ओरखे बर मनखे मन, उजरत खलक बढ़त हे भीड़
जगा ला पहिली हक लाने बर, खमखम जमिन बना के ठौर.
कवि मन जहां मंच पर पहुंचिन, हर्षित होवत ताली पीट
कवि मन हाथ उठावत ऊपर, ओमन व्यक्त करत आभार.
कवि मन के परिचय होइस तंह, बढ़गे आत्मीयता संबंध
अइसे लगत के परिचय जुन्ना, जानत एक दुसर ला खूब.
कविता पाठ शुरूहोवत हे, श्रोता के मुंह चुमचुम शांत
कविता सुनत कान ला टेंड़िया, अंदर मन मं रखत सम्हाल.
जीवनयदु खैरागढ़वासी, साहित्यिक जग मं विख्यात
ओहर गीत ला गावत लय धर, प्रस्तुत करथय ठोस विचार –
“”पखरा सहि काया मं आगी सही मन मांगत हे जुग मोर।
बेरा के गोड़ बंधाये सनीचर बेरा ला तंय झन अगोर।।
चुरुवा ले निथर नइ तो जाहय सबो जइसे दोना ले पातर झोर ।
अंगना ले निकल तंय हा आबे ते आहय मोहाटी के आगू मं खोर ।।
रक्सिन रथिया करियावय झन
तोर सुरुज ला छरियावय झन
पांचो अंगरी ला छांट के चल
खोचका डिपरा ला पाट के चल
तब हम सकबो जदुहा रक्सा मन के सब फांदा ला टोर ।।
बिन गोड़ मुंहू के सिकारी हवे
सब जोंख के इही चिन्हारी हवे
रसदा मं परे हवे घात लगा
कोकड़ा सहि बइठे हे दिही दगा
तंय चीन्ह चिन्हारी ला झन बिसरा गठिया लेबे पागा के छोर ।।
तोर हे कुरिया कुरिया काबर
कोनो मोठ हवे तोर ले आगर
होगे धोती हा तोर लिंगोटी काबर
होगे चांउर तोर जी गोंटी काबर
येला सोच बता कतका दिन खाबे तंय हा कनकी ला अल्होर ।।
आगी सिपचा आगी बरही
तोर हाथ भुंजाही बंहा जरही
अपनेच मरे ले सरग दिखथे
बेरा बिदवान कथा लिखथे
टपके नहीं कोनो अगास ले जी कोनो आवय नहीं भुंइया फोर।।
तोर मुंहू मं हवय भाखा बोली
दुखुवा के हवे जी इही गोली
झन बाप हा बेटा के घाती बने
अतका पथरा तोर छाती बने
हुंड़रा के मुंह झन जावन पाये जी गाय के पाछू कलोर।।
संग संगी केहे गंज आस मोला
तोला भूख तपे अउ पियास मोला
फेर काबर भीतर तंय हा हवस
लागे मोला तो बयरासू अस
धकियाबो चलो भुतहा खण्डहर बनके हम आंधी झकोर ।
पखरा सहि काया मं आगी सही मन मांगत हे जुग मोर ।।
भीखमबैष्णव श्रृंगारिक कवि, जउन करत खैरागढ़ वास
मन मोहे बर गीत ला गावत, निज आवाज बना के मीठ-
“”मोर सोन चिरैया – आंखी मं बसैया, मन ले बिसरे न।।
उदुक फुदुक के बैरी मैना, इहां उहां उड़ जाथय
गुरतुर भाखा बोले पैरी, सब के मन ला भाथय
बोली अइसन मीठ लागे, जस मंदरस घोरे रे ।।
कान मं अइरिन पहिरे बैरिन, मटके धर के गगरी
थिरा थिरा के पांव ला धरथय, नदिया अड़बड़ गहिरी
कहूं बिछलगे पांव, तंय हा गिर तो परबे न ।।
चूंदी कारी – झुंझकुर बारी, बादर अस भरमाथे
खोंचे कनिहा हरियर लुगरा, सुआ ददरिया गाथे.
मुचुक हंसाई देखे, मन के परेवा उड़गे न ।
मोर सोन चिरैया आंखी मं बसैया, मन ले बिसरे न।।
कवि गोपाल भण्डारपुर बसथय, सच मं ग्रामीण साहित्यकार
एकर रचना स्तर ऊंचा, पाठ करत हे धर के राग-
काकर करा हम जान कोन ला गा हम गोहरान?
ए डहर ओ डहर सबो डहर भैंसा अंधियार
जान डरिन सुन डरिन कोनो नइ कहय दीया ला बार
हुरहा अभर जाबे तब डोमी मारे हवय फुसकार
ढोंढ़िया असोढ़िया मुढ़ेरी सब के इही हे विचार
एमन सबे बदे फूल मितान।
तब काकर करा हम्मन जान…।।
खुर्सी मं बइठे बर एमन सबे किरिया ला खाइन
राम सरी हम राज चलाबो कहिके गा उभराइन
हुरहा खुरसी मं एहर बइठिस आगे एला उंघासी
उंघात उंघास खटिया पाइस सुतगे गा ए छैमासी
एकर खटिया मं छुटगे परान ।
तब काकर करा हम्मन जान ।।
सियान जान के पीढ़ा देन हमला उही पीढ़ा मं मारिस
दोंहदोंह ले अपन पेंट भरे बर ठंडका हमला ठगदिस
सियान जान के कुकरी पोइलिस नीयत एकर छूटिच गे
हुरहा एला मिठाइस संगी आंखी एकर फूटिच गे
गोपाल एमन हवंय बइमान ।
तब काकर करा हम्मन जान ।।
कवि मिथलेश रहत अर्जुन्दा, सम्मेलन मं रखथय धाक
रचना हेर पढ़त हे सुर धर, मन ला मोहत मीठ आवाज –
कौन जानता था कि ऐसा गजब हो जायेगा
पैगाम रोशनी का भी अंधकार लायेगा.
चिपका उदर नंगा बदन तू जीता रहा किसान
बोएगा तू काटेगा तू पर मान तू न पायेगा.
कोकिलोंे की लाश पट जायेगी अमराई भर
आम की हर डाल पर उलूक फाग गायेगा.
भाइयों पर भाइयों के देख मजबही सितम
नर्क में बैठा हुआ महमूद गजनवी शर्मायेगा.
रोशनी तम को पर चीर आयेगी – निसार
आज नहीं कल सही वह दिन जरुर आयेगा.
हे विद्वान रामेश्वरबैष्णव, हे रौशन साहित्य मं नाम
ओहर रचना ला हेरिस अउ, डारत हे श्रोता के कान –
आगी हा अमरित कस लागय वा रे अप्पत जाड़
डोकरा पानी देख के भागय वा रे अप्पत जाड़.
दांत मंजीरा बनगे होगे हूहू हूहू गाना
गोदरी ला छोड़े नइ भावय वा रे अप्पत जाड़.
स्वेटर कोट रजाई मं दिन रात लदे मनखे
कनचप्पी बिन पग नइ ढारय वा रे अप्पत जाड़.
लइका ला छेमाही परीक्षा के लदके हे भूत
तब ले भिनसरहे नइ जागय वा रे अप्पत जाड़.
झार मुहल्ला मन मं कइसन झगरा फदके हे
जउने तउने कूदय फांदय वा रे अप्पत जाड़.
अइसन मं कवि सम्मेलन के आए हे नेवता
बैष्णव जी गउकिन नइ जावय वा रे अप्पत जाड़.
कवि के नाम मुकुंदकौशल हे, शहर दुर्ग मं करत निवास
ओहर कविता ला हेरिस अउ, सुर के साथ करत हे पाठ-
“”हाथ मां अंइठी पांव मं पैरी, कनिहा मां चरलड़िया करधन
गरा मं पहिरे सुर्रा पुतरी, सूंता माला पांव मां पैजन
हाथ के अंगरी मन मां मुंदरी, बिछिया पांव के अंगरी मन मां
छत्तीस रंग के सुघ्घर लुगरा, फबै जेखर कंचन कस तन मां
छत्तीस गहना देंह मां साजे, छत्तीस चूरी खन खन बाजै
मांग मं सेंदुर छत्तीस बुकनी, मुड़ मं बोहे चांउर टुकनी
जेखर हे किरपा बड़ भारी, बंधुवा बेटा के महतारी
छत्तीस नदिया छत्तीस तरिया, छत्तीस ठिन मंदिर माढ़े हे
छत्तीस ज्ञानी ध्यानी पंडित, छत्तीस ठिन मंदिर माढ़े हे
जिंहा राम बड़का अउ छोटे लछमन, नान्हे मन बनवारी
महापुरुष मन के उपजइया, जै हो मोर भुंइया महतारी
इहां मयारुक गुरतुर गुरतुर, बोली के महिमा अड़बड़ हे
नांव घलो कतका सुंदर, मोर महतारी के छत्तीसगढ़ हे
देख सकै झन तोला, आंखी फार के कउनो बैरी
अम्मर हे तोर चूरी दाई, अम्मर हे तोर पैरी…।”
आये श्यामलाल चतुर्वेदी, बिलासपुर मं करत निवास
ओहर कविता ला हेरिस अउ, मुड़ ला हला करत हे पाठ-
जब आइस बादर करिया ।
तपिस बहुत दू महिना तउन सुरुज मुंह तोपिस फरिया ।।
जउन रंग ला देख समे के, पवन जुड़ाथे तिपथे
जाड़ के दिन मं सुर्रा हा, आंसू निकार मुंह लिपथे
गरम के महिना झांझ होय, आगी उलझय मनमाना
तउने फुरफुर सुघर चलिस, जइसे सोझुवा जनजाना
राम भेंट के सबरिन बुढ़िया कस मुखयाइस तरिया ।
जब आइस बादर करिया ।।
जमों देंह के नुनछुर, पानी बाला सोंत सुखागे
थारी देख नानकुन लइका, कस पिरथिवी भुखागे
मेंघराज के पुरुत पुरुत के, उझलत देखिन गुढ़ुवा
“हां ददा बांचगे जीव, कहिन – सब डउकी लइकन बुढ़ुवा
नइ देखेन हम कभू ऐसो कस, कुछुक न पुरखा परिया।
जब आइस बादर करिया ।।
रात कहय अब कोन दिनों मं, घपटय हे अंधियारी
करिया हंड़िया केरवंछहा कस, जमों कती अंधियारी
सुरुज दरस के कोनो कहितिन, बात कहां अब पाहा
हाय हाय के हवा गइस, चौंगिरदा ही ही हा हा
खेत खार मं जगा जगा सरसेत सुनांय ददरिया ।
जब आइस बादर करिया ।।
का किसान के सुख कइहा, बेटवा बिहाव होय जइसे
दौड़ धूप सरजाम सकेलंय, काल लगिन होय अइसे
नांगर बिजहा बइला जोंता, नहना सुघर तुतारी
कांवर टुकना जोर करंय, धरती बिहाव के त्यारी
बर कस बिजहा छांट पछिनय, डोला जेकर कांवर
गीद ददरिया भोजली के, गांवै मिल जोड़ी जांवर
झेंगुरा धरिस सितार बजाइस, मिरदंग बेंगवा बढ़िया
बजें निसान गरज बिजली, छुरछुरी चलाय असढ़िया
राग पाग सब माढ़ गइस हे, माढ़िस जम्मों घरिया ।
जब आइस बादर करिया ।।
हरियर लुगरा धरती रानी, पहिर झमक ले आइस
कोतरी बिछिया मुंदरी कस, फेर झुनुक झेंगुरा गाइस
कुंड़ के चौंक पुराइस ऐती, नेंग मा लगे किसानिन
कुछू पूछिहा बुता के मारे, कहिथें – हम का जानिन
खाली हाथ अकाम खड़े, अब कहां एको झन पाहा
फरिका तारा लगे देखिहा, जेकर घर तूं जाहा
हो गय हे बनिहार दुलम सब खोजय खूब सफरिया ।
जब आइस बादर करिया ।।
पहरी उप्पर जाके अइसे, बादर घिसलय खेलय
जइसे कल्लू पारबती संग, कर टेमचुल ढपलेय
मुचमुचही के दांत सही, बिजली चमकय अनचेतहा
जगम ले आंखी बरै मुंदावै, करय झड़ी सरसेतहा
तब करीब के कलकुत मातय छान्ही तरतर रोवय
का आंसू झन खंगै समझ अघुवा के अबड़ रितोवय
अतको मा मुखयावै ओहर, लोरस नवा सके के
अपन दुख के सुरता कहां? भला हो जाय जमे के
सुख संगीत सुनावै – तरि नरि ना मोरि ना अरि आ ।
जब आइस बादर करिया…।।
नाम “रमेश अधीर’ ए कवि के, जेहर बसथय कोण्डागांव
ओहर कविता ला पढ़थय तब, श्रोता करत प्रशंसा खूब –
कोठी भर भर जे छलकाइन, खोंची बर खड़े मुहाटी में ।
पसिया मांगत करन फिरत है, छत्तीसगढ़ के माटी में ।।
जुच्छा पेट सुन्ना अगास हे, जेमा भूख सुरुज के गोला
पीरा के जठना मं लांघन, अंगरा ओढ़े कोंवर चोला
करजा गर फांसी होगे, आगी लगगे घांटी में ।
पसिया मांगत करन फिरत हे, छत्तीसगढ़ के माटी में ।।
आस के चंदन धुर्रा बनगे, कांटा बांटा जिनगी के
चांउर नैन बर सपना होगे, दर्शन मिले न कनकी के
मनखे तन कठवा के पुतरी, बिपत के ढेरा आंटी में ।
पसिया मांगत करन फिरत हे, छत्तीसगढ़ के माटी में ।।
हंड़िया सुरता करके रो दिस, बीते दिन ला सीधा संग
राम लखन कुरिया ला छोड़िन, गांव ले निकलिन सीता संग
सांस के गठरी बांध के चल दिन, घर के दुख संग काठी में ।
पसिया मांगत करन फिरत हे, छत्तीसगढ़ के माटी में ।।
दानेश्वर शर्मा कवि ऊचा, बसथंय पद्यनाभपुर दुर्ग
कविता हेर पढ़त हे सुर धर, वाह वाह बोलत हें लोग.
मइके ल देखे होगे साल गा,
भइया तुमन निच्चट बिसार देव
बहिनी के नइये खियाल गा ।
कनकी अस कइसे निमार देव ।।
गंगा के धारा हा कइसे उलटिस भइया
लहू के नता हा कइसे टूटिस भइया
मया हा मोरेच बर कइसे खंगिस भइया
चिट्ठी के परगे अकाल गा ।।
दाई के खांसी हा माड़िस – नइ माड़िस गा
ददा के रोगहा जर छांड़िस – नइ छांड़िस गा
तोर छोटे बाबू हर बाढ़िस – नइ बाढ़िस गा
बस्ती के बता सबो हाल गा ।।
आंसों मोर गंगाजल तीजा रिहिस होही
फागुन मं ओकर पठउनी होइस होही
आहूं केहे रेहेंव, रद्दा देखिस होही
घुस्सा मं होइस होही लाल गा ।।
मोर सेती ददा के पैलगी कर लेबे
मयारुख दाई के आसिस मां तर लेबे
दूनों भतिजवा के चूमा तैं कर लेबे
भउजी के छूबे दूनों गाल गा ।।
कवि मन कविता पाठ खतम कर सब ले पैन प्रशंसा।
सुनत सुनावत टेम खसकगे तभो बुतत नइ हाही ।।
श्रोता जमे मंच के तिर मं, कुछ सुरता नइ खेत कोठार
कवि मन करिन प्रार्थना तंहने, श्रोता मन रेंगिन मन मार.
ग्रामीण चहत – देन हम रुपिया, पर कवि मन कर दिन इंकार
बोलिन – अपन गांव आये हन, काबर लेगन धर के कर्ज !
सुम्मत राज ध्येय जब पूरा, तभे मनाबो हम तिवहार
पेटमंहदुर बन कोंहकोंह खाबो, लहुट जबो धर कड़कड़ नोट.”
जय जोहार – कर कवि मन रेंगिन, मन गुप्ती मं धर के प्रेम
अपन अपन घर मनखे जावत, नव उमंग धर धर के रेम.
कुछ दिन बाद ओन्हारी पकगे, सुंट बंधगे मजदूर किसान
केन्द्रीय शक्ति बली होथय कहि, एक साथ भिड़ लगिन कमान.
चना गंहू अरसी ला काटिन, राखिन एक ठन जबर कोठार
फसल ला मींजत ओसरी पारी, बाद ओसाइन सूपा धार.
डुठरी ला कोटेला कुचरिन, तब घोटरे अन बाहिर अ‍ैस
घेक्खर बण्ड खात रहपट तब, सम्मुख ढिलथय वाजिब तथ्य.
बन्दबोड़ हे जंगल तिर मं, ओकर पास हवय बन्छोर
आय ऐतहासिक स्थल तब, नाम उदगरत हे विख्यात.
कई पथरा के मूर्ति उहां पर, एक मूर्ति हा भव्य विशाल
मनखे उंकर मान पूजा कर, पात अपन मन सुख संतोष.
डकहर सुखी घूम लिन जंगल, तेकर बाद गीन बन्छोर
देख निझाम जगह पबरित अस, बइठ दुनों झन करत सलाह.
डकहर कहिथय -“”जमों कृषक मन, राह चलत हें सुम्मत बांध
सब बिरता ला मींजिन कूटिन, एक जगह पर रखिन सकेल.
एकर मतलब साफ समझ तंय – होत संगठित सब ग्रामीण
धनवा पर अब धावा चढ़िहय, ओकर शासन करे समाप्त.”
बोलिस सुखी -“”उचित बोलत हस, धनवा के भावी अंधियार
यदि धनवा ला संग देवत हम, गंहू के संग मं कीरा जान.
धनवा पहिलिच ठोंक बता दिस – जब परिवर्तन अ‍ैस समाज
मध्यम वर्ग मरिस हे पहिली, बाद गिरिस शोषक पर गाज.
क्रांति के भेद समझ के अब हम नइ तो खावन माछी।
धनवा ले सम्बन्ध टोर के – जन के पीयन मानी ।।
जनता जइसन जेवन करिहय, हम्मन जेबो उहिच समान
ओकर तोलगी ला यदि धरबो, निश्चय बचा सकत हम प्रान.”
डकहर राखत प्रश्न सुखी तिर -“”पर शंका ला तंय कर दूर
हम धनवा के छांय असन अन, सदा रहत हन ओकर साथ.
पर अब ओकर संग ला छोड़त, हम दूसर के पकड़त बांह
सच मं हमर कोन – हम काकर, हमर कोन अरि – कोन मितान?”
किहिस सुखी -“”सिद्धान्त हमर सुन, आय हमर बर ओहर शत्रु
घाटा खतरा दण्ड ला देवत, यने हमर हित कर नइ पाय.
हमर मित्र हा हमला देवत – लाभ सुरक्षा स्वार्थ इनाम
यने हमर हित के रक्षक ला, हम मानत हन ईष्ट समान.
अब मंय निर्णय साफ देवत हंव – हम तुम दुनों पूर्व अस एक
पर धनवा ले दूर रहन हम, अब नइ देखन ओकर द्वार.”
दुनों सुंटी बंध – बात गुप्त रख, लहुट अ‍ैन सुन्तापुर गांव
धनवा के हालत ला देखिन, वास्तव मं होवत हे पश्त.
धनवा लरथराय बिन मनखे, कोनो नइ देवत सहयोग
नौकर काम करे बर छोड़िन, अब डांटत फिक्कर के रोग.
धनवा अन्य गांव जावत पर, ओमन ठेंगवा देखा भगात
एक देश के निज बाते पर, दखल करय नइ दूसर देश.
डकहर सुखी पक्षधर तेमन, मुंह कर करूभगत हे दूर
धनवा हीन हवय ऊंकर बिन, कनिहा टांठ परत हे लोच.
पता चलिस के अब दूनों झन, जनता साथ मिला लिन हाथ
क्रांति के बाजा बजा इही मन, सब झन ला करिहंय सावचेत.
पर बन्जू हा गर्व मं अंइठत, चेथी कोती रखे दिमाग
खुद ला पूंजीपति समझत हे, खुद ला समझत सब ले ऊंच.
मेहरूहा बन्जू ला बोलिस -“”कतको साफ करत हें खेत
पर बन दूबी हा बच जावत, ओहर फसल ला करथय नाश.
डकहर सुखी राह पर आगें, ओमन देत क्रांति ला साथ
पर तंय रहड़ा बन के कूदत, यदपि रखे हस भ्रम ला पाल.
तंय हा हमर ले धनवन्ता अस, पर तंय पूंजीपति नइ आस
पूंजीपति के व्याख्या करथंव, ओला तंय हा सुन कर चेत-
ओमन कतको खर्चा करथंय, पर नइ होय कभू कंगाल
बड़े रोग हा तन मं सपड़त, ऊंकर धन नइ होय समाप्त.
ओमन अप्रत्यक्ष ए शासक, शासक तक ला लेत खरीद
शिक्षित उच्च – बुद्धि ऊंचा मन, मंगत जीविका ऊंकर पास.
यद्यपि ओमन आर्थिक मुजरिम, पर नइ बनंय कभू अभियुक्त
दुनिया घूम करत हें खर्चा, पर धन वृद्धि ऊन के दून.”
मेहरूहा बन्जू ला बोलिस -“”मितवा, तंय अस जन सामान्य
हम सामान्य जीव अन तब तंय, हमर मदद ला कर बिन भेद.”
बन्जू के भ्रम हा मिट जाथय, कहिथय -“”तंय बोलत सच तथ्य
वास्तव मं हम पूंजीपति नइ, धन हा कभु हो जाहय नाश.
यदि अकाल मं फसल भुंजावत, शासन तिर हम मंगथन भीख
अपन पुत्र ला बांटा देवत, तंहने हम होवत कंगाल.”
बन्जू हा मेहरूला बोलिस -“”मोर पास जतका धन चीज
मंय हा गांव ला अर्पण करथंव, क्रांति ला मंय देवत हंव साथ.”
सुघर बात सुन मेहरूहर्षित, मिहनत आज सफलता पैस
बन्जू ठीक राह पर लगगे, निश्चय पूरा सब उद्देश्य.
हरहर हरहर हवा चलत अब, गिरत पेड़ के सुखा के पान
लगथय – पूंजीवाद हा मरिहय, भट के सत्तारुढ़ समाप्त.
होली परब आय हे लकठा, चलव मनान सुंटी ला बांध
बाद मं लड़बो छोर कछोरा, पर अभि खेलन प्रेम के रंग.
जेला जोहत एक बछर तक, अभर गीस उत्सव के रात
“होली हे’ लइका चिल्लावत, घर घर ले मंग लकड़ी लात.
“चोरी झन हो’ कहि बुजरुक मन, ताका करत – करत हें जांच
पर रापा खरिपा हा चलदिस, टुरा चोरा के मारत टेस.
जेन मेर “होली’ हा बरिहय, मनखे बइठ गीन मन मार
ओतिर लकड़ी के गांजे ढिक, जेहर गोला कामिल कांड़.
बुजरुक मन लकड़ी ला देखिन, तंहने होवत हें सन सांय
देत युवक मन ला समझउती -“”बेढंगा अस होवत काम.
यह इमारती लकड़ी ला तुम, बिन सुल बारत अबुज समान
लकड़ी बचा रखव भावी बर, कतको ठक बन जहय मकान.
जंगल धंसा तिहार मनायेन, चिखना परत दुखद परिणाम
वायु प्रदूषण रोग अस बाढ़त, ठीक समय नइ बरसा घाम.
पूर्व कुजानिक करे हवन हम, जानबूझ माछी झन खाव
धरती माता ला हरियर रख, खुद भावी ला सरग बनाव.”
उंकर सलाह जंचिस तंह रखदिन हेर के कामिल लकड़ी।
रांई झुरी जलऊ लकड़ी ला रचत हवंय गोलिया के ।।
बांस घंसर के आग दगाथंय, बाद ढिलिन लकड़ी मं आग
जरत बरत होलिका पापिनी, अत्याचार के पाग समाप्त.
मनसे लीन राख के टीका, एकर बाद छोड़दिन ठौर
घर मं पहुंच रुसुम ला फोरत, अउ “प्रहलाद कथा’ ला कान.
आज आय होली के उत्सव, सबके मन मं भरे उमंग
कते मित्र अउ कते हे दुश्मन, कोन बतान सकत हे भेद !
परसा फूल टोर के लानिन, गघरी मं ओइरिन सब फूल
ओकर साथ नाय हें पानी, गघरी ला चूल्हा रखदीन.
धकधक आगी हा धधकत हे, खउलत जल के संग मं फूल
जहां फूल के रंग हा ओगरिस, देखव बनगे पक्का रंग.
ओकर साथ बनत पिचकारी, ठाहिल बांस के पोंगरी आय
कतको रंग भरय पिचकारी, लेकिन झटका ला सहि जाय.
सबके घर मं चुरे पके हे – नुनहा गुड़हा रोटी आज
ठेठरी पुड़ी करी के लाड़ू, याने जेकर तिर जे शक्ति.
कुछुच फिकर नइ-मन आनंदित, इंकर मुड़ी पर सुख के ताज
चुरे जिनिस ला सबझन खावत, दूसर तक ला बांट बिराज.
अब मनसे मन हा सकलावत, गउराचंवरा तेकर पास
कई प्रकार के रंग धरे सब, ओकर संग मं धरे गुलाल.
दुश्मन मित्र के भेद खतम हे, प्रेम करत हे मन ला चंग
एक दुसर ला कबिया के धर, ओकर ऊपर डारत रंग.
कतको झन मन गोलिया बइठिन, बाहिर लावत मन उत्साह
बजत नंगारा कई ठक बाजा, जोश मं उठ उठ गावत फाग –
“”अरे सर रर सुन ले मोर मितान
फागुन मस्त महीना संगी उड़गे रंग गुलाल
आगू आगू राधा भागे पाछू में नंदलाल
बारामासी
फागुन मस्त महीना अरे संतो,
फागुन मस्त महीना रे लाल
चारे महिनवा पानी गिरत हे
पानी गिरत हे हो पानी गिरत हे
टपटप चुहे ला झोफड़िया हो
टपटप चुहे ला झोफड़िया अरे संतो
फागुन मस्त महीना रे लाल…।
चारे महिनवा जाड़े लगत हे
जाड़े लगत हे हो जाड़े लगत हे
थर थर कांपे करेजवां हो
थर थर कांपे करेजवां अरे संतो
फागुन मस्त महीना रे लाल…।
चारे महिनवा घाम लगत हे
घामे लगत हे हो घाम लगत हे
टपटप चुहे ला पछीना हो
टपटप चुहे ला पछीना अरे संतो
फागुन मस्त महीना रे लाल…।
जासल गीत
अरे हां रे जासल – जासल बुड़गे कउहा में
अरे हां रे जासल – जासल बुड़गे कउहा में
अरे हो ओ ओ ओ ओ ओ रे जासल,
जासल बुड़गे कउहा में
मुड़ टांगे सींह दुवार, अरे मुड़ टांगे सींह दुवार
रे जासल – जासल बुड़गे कउहा में
तो कइसे जासल बुड़गे कउहा में ?
मुड़ टांगे सींह दुवार
रे जासल – जासल बुड़गे कउहा में
जासल बुड़गे कउहा में – जासल बुड़गे कउहा में
मुड़ टांगे मुड़ टांगे मुड़ टांगे सींह दुवार
रे जासल, जासल बुड़गे कउहा में…।
झूला
अरे ककनी मांजे रे तरैया में ककनी
अरे हां हां तरैया में ककनी मांजे रे।
ककनी मांजे बंहुटा मांजे मांजे गले के हार
भला हो मांजे गले के हार
ककनी संग मं बहुंटा मांजे, मांजे ये सोलासिंगार
तरैया में ककनी, अरे हां हां तरैया में ककनी मांजे रे…।
सुत के ऊठे लोटा धरे अउ सोझ्झे तरिया जाय
भला हो सोझ्झे तरिया जाय
तरिया पार में कुकुर कुदाये, लोटा छोड़े घर आये
तरैया में ककनी
अरे हां हां तरैया में ककनी मांजे रे…।
संझा आगे तभो चलत आपुस मं हंसी ठिठोली ।
कोन बरज सकिहय कोई ला आय सुहावन होली ।।
ऐ होली, तंय हा इसने हर बछर दउड़ के आबे ।
दुश्मन तक ला मित्र बनाके ओकर गला मिलाबे ।।

(९) गंहुवारी पांत समाप्त