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नाटक

विष्णु सखाराम खांडेकर कहानी के एकांकी रूपांन्तरण : सांति

दिरिस्यः 1
घना करिया बादर ले सूरुज नरायन भगवान धीरे धीरे उअत हावय। ओला देखके-
कबि:- कल संझा समे मा, सागर मा बूड़े सोन कलस हाथ मा लेके उए होही, फेर सागर के तरी मा कलस के खोज करत करत ओकर हीरा मोती लगे गहना कहूंॅ छूट गे होही, ओला खोजे बर फेर एक घा सागर के तरी मा गे होही, ता देखिस, ये सोन कलस लहरमन के भान ले लहरावत हावय।
लइका:- नंदनबन के कोन्हो सुग्घर आमारूख ले गदराय आमा गिरत हावय, जेहर ढुलत ढुलत भिंया मा आत हावय।
सियान:- जवानी के मीठ अउ मताय सपनामन मा फंसे मनखे के आत्मा, आप सचेत होके सुध रुप मा परकट होत हावय।
साधु:- नदी के धारा मा अर्द्धदान अरपित करत अउ गायत्री मंतर के जाप करत-
हे परभू! तैंहर उज्जर हावस, तोर किरपा ले इ धरती के अंधियार के बिनास होवत हावय, फेर ओइ धरती मा रहोइया परानीमन के मन मा जे अंधियार छाय हावय, वोला तैंहर कब खतम करबे? परानीमन मा रहोइया भगवान के ओमनके परिचय कब होही, हे दयानिधान! इ संसार मा भभकत असांति के आग ला तुंहर सिवा कोन बुताही, मोर तन ले लेवा, सुख ले लेवा, मोर सरग ले लेवा, फेर कुछु इसने कर देवा, पूरा संसार मा सांति के राज होवय, सिंह के पीठ मा खरगोस बिना डर के खेले, गरुन के कोरा मा सांप सूते, आर्यमन ले अनार्यमन गला मिले, बस अतकीच मोर कामना हावय।

दिरिस्य:2
चील आपन चूजा के चोंच मा चोंच मिलावत हावय, चील ओई सूरुजनरायन ला निहारत हावय।
चील:- राजा बेटा! आप तोर बर खाना लाने बर बाहिर जाय के समे आ गे हावय, काल तैंहर घारा ले बाहिर जाय बर उतियारा हो गे रेहे, फेर मैंहर घरि घरि बरजतों, बाहिर झन जाबे, तोर पांख आभी दुरबल हावय, एकठन अउ बात ये जो नीला अगास दिखत हावय, ओमा एकठन दुस्ट चुड़ैल लुकाय बइठे हावय, तोर जइसने लइकामला भुलवाके वोहर घारा ले बाहिर ले जाथे। कभू ओहर गीद गात हावय, कभू बादरमन के हाथी घोड़ा मा चढ़ाहा कहके ललचात हावय। फेर सूरता राख, वोहर नान नान लइका मला मार के ओकर मांस खवइया सैतान हावय। तोला मोर कसम हावय, कुछु हो जाय फेर आपन घारा ले बाहिर झन जाबे। मैंहर आपन लइका बर का लानहिया जानत हस, एकठन सुग्घर सांप के पीला।
चूजा:- पीला।
चील:- हां पीला ! सांप के पीला के मांस कतका मीठाथे, सबदमन ले नी कहा जा सकाय, तैंहर खाबे ता जानबे।
चूजा:- सांप के ओ पीला के दाई होही ना?
चील:- हां
चूजा:- ओकर पीला ला तैंहर मार के ले आबे, ता ओहर रोही नीही?
चील:- मोर लइका कतका भोलवा हावस, मोर लइका सांप के आने जात होत हावय, हामर आने जात होत हावय, हामर अउ सांप मा बइरी हावय।
चूजा:- बइरी माने?
चील:- चील सांप की दुस्मन हावय समझे।
चूजा:- फेर दुस्मन काला कइथे?
चील:- जेला हामनला मारे बर हावय, ओला दुस्मन कइथे।
चूजा:- फेर ओला काबर मारे बर हावय?
चील:- खाय बर।
चूजा:- हामन आने कुछु खाबो।
चील:- बइहा हस तैंहर! हामर जंगल मा जे साधु रइथे, ओकर लइका होके तोला जन्मना रिहिस। गलती ले तैंहर मोर इहांॅ जनम ले ले।
बड़ मया ले आपन चोंच ला ओकर चोंच मा छुआ के घारा ले बाहिर निकल जाथे, मानों सरग ले झूपत झपत कोन्हो बिमान धरती मा उतरत होवय।

दिरिस्य:3
सिकारी अउ ओकर बेटा एक दूसर ला चूमत हावय।
सिकारी:- बेटा काल तैंहर रंग बिरंग फूल टोड़त धूरिहा चल दे रेहे, आज फेर ओ गलती झन करबे। जंगल मा आनि बानि के परानी रइथे। कब हमन मा झपट परही केहे नी जा सकाय।
बेटा:- फेर बोबा!
सिकारी:- फेर वेर कुछु नीही, घर मा खेलत रह, काल तैंहर अगास मा उड़त चील ला देखके कहत रेहे ना, मोला ओकर मेर खेले बर हावय, ता तोर खेले बर मैंहर चील के पीला ले आहा, पहिली चील के पीला, पीछू सिकार करे जाहां।
बेटा:- ओ पीला के दाई होही ना?
सिकारी:- अरे बइहा! इ धरती मा दाई के बिना काकर जनम होइस हावय।
बेटा:- फेर मोला ओकर पीला नी ले बर हावय, तैंहर ओकर लइका ला धर के लानबे ता ओकर दाई उहां रोत रीही, काल मैंहर कुछु देर बर भटकगे रेहे, ता तैंहर कतकाकन रोय रेहे।
सिकारी:- लइका के मुड़ी ला सहलात। -हामर जंगल मा जे साधु रइथे, ओकर लइका होके तोला जन्मना रिहिस, गलती ले मोर जइसने सिकारी घर मा जनमगे। अरे बइहा! चिरईमन के जात आने अउ मनईमन के जात आने। जा आपन धनुस लेके खेल।
फेर ए घ लइका ला चूम के वोहर झाला ले निकल गिस। आपन धनुसबान तानके लंबा लंबा पांव भरत वोहर आघू जात गिस, मानों आपन मातृभूमि के रक्छा बर रनभूमि मा जात वोहर कोन्हों बीर सिपाही होवय।

दिरिस्य:4
सांपिन आपन संपोला संग बतियात हावय।
सपोला:- दाई देख घाम कतका बाढ़ गे हावय। चल ना आपन बिल मा सूतबो।
सांपिन:- रीस करत- नीही, अतका जल्दी नीही, थोरकुन अउ रुक, वो सिकारी हर रोज इ डहर मा जाथे, जब तक जी भरके डस नी लिहा, मोर मन ला चैन नी मिले।
सपोला:- फेर दाई! काल ओ सिकारी के पांय गलती ले तोर उपर परे रिहिस, ओला काबर दिल मा लेत हावस?
सांपिन:- बइहा रे बइहा! मोर भोलवा, जंगल मा जे साधु रइथे ना, ओकरे बेटा होना रिहिस तोला, गलती ले मोर घर मा जन्मगे तैंहर।
सपोला:- अगर तैंहर ओ सिकारी ला मार देबे, ता ओकर लइका हर रो रो के मर जाही।
सांपिन:- मरन दे हमन ला का? सांप के जात आने अउ मनखे के जात आने, मैंहर जल्दी आत हावों, आपन आप ला संभाल, इ झुरमुट ले बाहिर झन आबे।
सांपिन हर सपोला ला गला लगाइस, अउ बाहिर निकलगिस, मानों सागर कोति बोहात बलखात कोन्हों नदी होवय।

दिरिस्य:5
धुरिहा अगास मा चील उढ़ियात हावय, सिकारी के अता पता नीए, सांपिन रीस मा फंुफकारत खोजत हावय, ओकर पीला ओकर पीछू पीछू आत हावय, फेर ओला पता नीए, सिकारी के बेटा घलो आपन ददा के पीछू पीछू झाला ले आत हावय, चील के पीला घलो उढ़ियाय के मोह नी छांॅड़ नी सकीस। वोहर घलो उढ़ियात उढ़ियात घारा ले धुरिहा आ गे हावय। दई ददा उपदेस देत रहंय, अउ ओला लइका अनसुना कर छुछिन्दा आचरन करय। जिनगी के निरंतर रीति बन गे हावय। सिकारी चील के पीला मा निसाना साधिस, ओतकी बेर सांपिन हर सिकारी के पांय ला चाब दिस, ओतकी बेर चील सांप के पीला उपर झपट परिस।

दिरिस्य:6
साधु कुटिया मा लहुंटत रहय, सिकारी के बेटा के करुन आवाज ओला सुनाई दिस, साधु ओ दिसा मा गिस, अद्भुत दिरिस्य देखिस-
कोन्हो समाधि मा रहय योगी साही चील ध्यानमगन रिहिस, अउ ओकर आघू मा एकठन सांपिन कोन्हों सुग्घर मूरती साही रिहिस, आपन बैर भाव भुलाके सबो परानी भाईचारा भाव से रेहे, ओकर ये भावना भगवान हर पूरी करिस, ओ दुनों के तीर मा एकठन लइका रहय।
साधु:- सांप ला चील ले डर नी लागे, मनखे ला सांप ले डर नी लागे, अउ मनखे ला देख के चील नी डराय, कतका सुग्घर दिरिस्य हावय, ये सब हर मोर साधना के फल हावय, परभु! तुंहर लीला धन्य हावय।
साधु आघू कति गिस, ता तीन लाश देखिस, एकठन मनखे के, एकठन चील के पीला के, अउ एकठन सांप के पीला के। ओकर हाथ ले कमंडल छूट गिस, गरदन तरी करे वोहर धरती ला निहारत हावय, ओकर आंखि ले आंसू झरत हावय।

सीताराम पटेल