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कविता

छत्तीसगढ़िया मन जागव जी

जागव जी अब उठव भईया,
नो है एहा सुते के बेरा ।
बाहिर के इंहा चोर घुमत हे,
लुट लिही खेतखार अउ डेरा ।।

बाहिर ले आके भोकवा मन ह,
छत्तीसगढ़ मा हुसिंयार होगे
हमन होगेन लीम के काड़ी,
उही मन ह खुसियार होगे।।

चुहुकत हे हमर धरती मईया ल,
सानत हे हमर ,परम्परा अउ बोली।
आज रपोटे हे धन खजाना,
जेन काली धरय,मांगे के झोली ।।

धान बोंवइया भूख मरत हन,
इंखर रोज तिहार होगे।
परदेश के ,चोरहा मन,
इंहा के सरकार होगे।।

हमर भाखा संस्कृति ह
उंखर बर जइसे बयपार होगे हे।
शांत भुईंयाँ म लहू बोहत हे
जइसे कोनो यूपी बिहार होगे हे।।

✍ राम कुमार साहू
सिल्हाटी, कबीरधाम
मो नं. 9977535388
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