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कविता

दाई के होगे हलाकानी

दाई के होगे हलाकानी
रदरद रदरद गिरत हे पानी,
दाई के होगे हे हलाकानी।
घेरी बेरी देखे उतर के अँगना में,
माड़ी भर बोहात हे गली में पानी।
लकड़ी ह फिलगे छेना ह फिलगे,
चूलहा में तको ओरवाती ह चुहगे।
रांधव रंधना कईसे बड़ परशानी,
दाई खिसयाय का बताव कहानी।
झनन झनन झींगुरें चिल्लाये,
टरर टरर मेचका नरियाये।
सरफर सरफर मछरी चढ़त जाये,
बिला ले केकरा झाकय फेर खुसर जाय।
रदरद रदरद गिरत हे पानी,
बरत नईये आगी बताव का कहानी।
दाई के होवत हे हलाकानी,
माड़ी भर बोहात हे गली में पानी।

संगीता वर्मा
अवधपुरी(भिलाई)