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व्यंग्य

कागज के महल

अमबेडकर के मुरती के आघू म, डेंहक डेंहक के रोवत रहय। तिर म गेंव, ओकर खांद म हाथ मढ़हा के, कारन पुछत चुप कराहूं सोंचेंव फेर, हिम्मत नी होइस, को जनी रोवइया, महिला आय के पुरूस ……? एकदमेच तोप ढांक के बइठे रहय, का चिनतेंव जी ……। चुप कराये खातिर, जइसे गोठियाये बर धरेंव, ओहा महेला कस अवाज म, चिचिया चिचिया के, गारी बखाना करे लगिस। मोला थोकिन अच्छा नी लगिस। ओकर तिर जाके, गारी बखाना ले बरजे बर, ओकर खांद म, जइसे अपन हाथ मढ़हाये बर धरेंव, ओला को जनी मोर इसपर्स के का अभास होइस, पल्ला दऊंड़िस। बिगन बात के, काबर नंगत दऊंड़त हे कहिके, मोरो मन म, सनखा उपजगे। पिछू पिछू महू दऊड़ेंव। मोला पिछू पिछू, सरपट दऊड़ंत देखिस त, ओकर दऊंड़े के गति अऊ बाढ़गे। मे चिचिया चिचिया के केहे लगेंव ‌- मोला गलत झिन समझ, में तोर पीछा नी करत हंव, में तोला कन्हो नकसान नी करंव, काबर अतेक दऊंड़त हस तैंहा ………। मोर बात समझ, उही तिर ठाढ़ होगे। अतेक दऊंड़े के बावजूद, मुड़ी कान कस के तोपायेच रहय, अऊ तो अऊ हाथ गोड़ तको, नी दिखत रहय। भूत परेत मरी मसान होही कहिके, में डर्रा गेंव ……। में पिछघुच्चा होये बर धरेंव, पलटेंव अऊ पल्ला छांड़ दऊंड़े धरेंव …….। अपन परान बचाये के फिकर म, हपटत गिरत, तरिया नदिया जनगल पहार, कहींच ला नी घेपेंव। कन्हो पिछू म आये के अहसास सिराये ले, एक कन थिराके, पिछू कोती लहुंटेंव, पीछा करे के कन्हो निसान नी पायेंव। उही रसदा म फेर लहुंट गेंव। जेकर छोंड़ के ओला आये रेहेंव, ओहा उहीच मेर बइठे रहय, अऊ फेर रोवत गावत, गारी गल्ला देवत रहय ……. …….।




में पूछेंव – काबर रोथस जी तेंहा अऊ काबर, गारी बखाना करत हस ..? काये दुख हमागे तेमा …..? ओ किथे – जेमन मोला बियइन, तेमन मोर ठीक से बेवस्था नी करिन, तेकर सेती, उही मनला बखानत हंव। मे केहेंव – अपन दई ददा ला कन्हो अइसने बखानथे तेमा ……? ओ किथे – अपन ला देख तैंहा ……। मोर कस अबेवस्था करतीस तोरो दई ददा मन, तब तैंहा तो, जिनदा गड़िया देते ….। में पूछेंव – कायेच अबेवस्था कर डरिन होही तेमा …..। अतेक सुनदर, तोला धरती म जनम दिस, पालिस पोसिस, बड़े होगेस तहन भुला गेस अऊ बखांने लगेस…..। ओ किथे – में नी भुलायेंव, बियाये के पाछू, ओमन मोला भुलागे। में अचरज म पर गेंव, अऊ केहे लगेंव – नलायक निकलगे होबे तभे भुलइन होही ……? ओ केहे लगिस – में नलायक नोहंव, मोला जनम देके अइसे जगा म राखिन के, में नलायक अऊ नकारा होगेंव …..। मोला ओकर गोठ बिलकुलेच समझ नी आवत रिहीस। ओ मोर मुहुं ला देखके समझगे अऊ अपने अपन, अपन राम कहानी बताये लगिस – मोर नाम लोकतंत्र हे बाबू ……….मोला जनम देवइया मन, मोर बर बाइस हिस्सा (संविधान के 22 भाग) म, बड़े जिनीस महल बनइस, जेमा तीन सौ पनचानबे खोली (395 अनुच्छेद) रिहीस। मोर महल म, रंग बिरंग के, आठ परकार (आठ अनुसूची) के, महंगा महंगा पथरा लगे हे, फेर दुख सिरीफ अतके हे के, मोला उहां ले कन्हो निकलन नि देवय, मोर आवसकता के पुरती करे बर समे समे म, कतको अकन खोली म नावा नावा टाइल्स (101 संविधान संशोधन ) लगा डरिन, चार परकार के अऊ नावा पथरा म ( चार नावा अनुसूची ), मोर महल ला गजब चमका दिन, फेर बैरी मन, मोला बाहिर निकलन नी दिन। में काकरो ले मिल नी सकंव, काकरो ले गोठिया नी सकंव …..। में हाँसेंव अऊ केहेंव – काबर लबारी मारथस यार, मोर से मिल डरे, गोठिया घला डरे। ओकर आंसू के धार नदिया कस बोहाये लगिस ……। ओ किथे – जेकर ले मिलथंव, संगवारी समझ, अपन दुखड़ा सुनाथंव, तिही मोला, काबर निकले कहिके, मारथे पीटथें। देस के चौथा खमभा ला अपन दोस्त बनायेंव अऊ ओकर तिर गेंव, त ओहा, तैं देखे बर अऊ सुने बर धर लेहस कहिके, मोर आंखी ला फोर दिस अऊ कान ला काट दिस। तीसर खम्भा ला अपन हितवा समझ तिर म गेंव, त ओहा, तोर दिमाग बहुतेच तेज चलत हे कहिके, मोर दिमाग ला नंगा के राख लिस। ओकर संगवारी मनखे मन, मारे पिटे ला धर लिन, जेल म डारे बर धर लिन। दूसर खमभा करा अपन दुखड़ा गोहनाये बर चल देंव, त ओहा, मोला काम धनधा झिन कर सकय कहिके, मोर हाथ गोड़ ला टोर के बइठार दिस। पहिली खमबा तो सबले जादा खतरनाक आय, ओकर संग दोसती मोला सबले महंगा परिस। ओहा मोर नाक ला काट दिस, जब मऊका मिलथे मोर पेट म लात मारथे ……, येमन तो केऊ बेर, सरेआम नीलाम घला करे बर, बजार म खड़ा कर देथे ……।




में केहेंव – तोर बर, तोर जनक मन, अतेक बड़ महल बना के, तोला सुरकछित राखे हे, त तैं हा काबर, होसियारी मारे बर, बाहिर निकलथस यार ……। ओ किथे – में तूहंर कस मनखे मन बर जनमे हंव, महल म धंधाये बर निही। में बाहिर आहूं, तब तहूं मनला बताहूं के, तुंहर बर, मोर डहर ले, कतका सुभित्ता के बेवस्था हे। में हाँसत केहेंव – मोला कनहो अइसने महल म रेहे बर कहितीस न, आंखी मुंद के अपन जिनगी ला बिता देतेंव, कभू मार खाये बर बाहिर नी निकलतेंव। ओ किथे – मोर महल सिरीफ कागज के आय बाबू, जेमा अतका अकन कचरा बगरे हे के, ओकर दुरगंध म, नाक दे नी जाय। जनता के बीच जाहूं त, अऊ जनता मोला जानही तब, मोर कागज के महल, पक्का बनही अऊ जनता के जिनगी के महल घला, सुघ्घर बन सवंर जही, तेकर सेती घेरी बेरी निकले के हिम्मत करथंव।



में केहेंव – जनता के फिकर करइया, बहुत झिन जनम धर डरे हे, तैं कागज म रहिथस लोकतंत्र, त बड़ सुनदर दिखथस, धरती म पांव देके, अपन सरीर ला, काबर बिगारत हस। रिहीस बात जनता के, तैं जनता ला, फोकट भरमा झिन, फकत गोठ के, तैं कुछ कर नी सकस……। मोर गोठ, को जनी, ओकर हिरदे म चुभगे के ओला भागे …………, उही दिन ले, कागज ले बाहिर नी आये के, कसम खाके बइठे हे लोकतंत्र हा, अपन संवैधानिक कागज के महल म ….।

हरिशंकर गजानंद देवांगन
छुरा
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