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व्यंग्य

लोकतंत्र के आत्मकथा

न हाथ न गोड़, न मुड़ी न कान। अइसे दिखत हे, कोन जनी कब छूट जही परान। सिरिफ हिरदे धड़कत हे। गरीब के झोफड़ी म हे तेकर सेती जीयत हे। उही रद्दा म रेंगत बेरा, उदुप ले नजर परगे, बिचित्र परानी ऊप्पर। जाने के इकछा जागिरीत होगे। बिन मुहू के परानी ल गोठियावत देखेंव, सुकुरदुम होगेंव। सोंचे लागेंव, कोन होही एहा ? एकर अइसे हालत कइसे होइस , अऊ एहा कइसे जियत हे ?
तभे हांसे लागिस ओहा। अऊ केहे लागिस, तेंहा अइसे सोंचत हावस बाबू, जानो मानो मोला कभू नि देखे हस। मय अवाक रहि गेंव। अभू ले पहिली सहीच म तोला देखे नि अंव, त जानहूंच कइसे ? मोर अइसन हालत के जिम्मेदार तहूं तो अस। न चिन न पहिचान, अउ उप्पर ले मोरे उप्पर आरोप घला लगावत हे। मय उठे ल धरेंव। अरे, येहा अंधरा हे, फेर मोला कइसे चिन्हत हे ? एकर नाक कान गला कहींच नि दिखत हे, कइसे सुनत हे कइसे गोठियात हे ? समझ नि अइस।
मोर जिग्यासा बाढ़गे। उठत रेहेंव, ते बइठ गेंव। बइठ बाबू, मोला अइसन इसथीति में अमरा के तहूं खिसकना चाहथस। कतको अइन, कतको गिन फेर कन्हो ल मोर दसा उप्पर तरस नि अइस। तैं कोन अस तेला तो बता ? बतावत हंव बाबू, अधीर झिन हो। अभू ले तीन कोरी छै बछर पहिली मोर जनम होय रिहीस। जनम देवइया मन मोला जनम देके पाछू राखना नि चाहिन। जेकर डेरौठी म ओड़ा देथंव, तिही दुतकारथे। जेन मनखे ल अपन समझथंव, उहींचे ले दुतकार मिलथे।
पहिली व्यवस्थापिका के कुरिया म अपन ठिकाना बनाये के, अपन आप ल इसथापित करे के परयास करेंव। वोमन मोला कुटकुट ले मारिन पीटिन। मय रेंगे झिन सकंव कहिके, मोर गोड़ ल टोर के बइठार दिन। केऊ खेप मोर नाक इंखरे मन के सेती कटिस। जइसे तइसे उहां ले निकल के कार्यपालिका कोती परस्थान करेंव। देखते देखत मोर हाथ ल काट दीन बइरी मन , ताकी कुछू काम बूता झिन कर सकंव। बड़ निरास होगे रेहेंव। फेर आसा के किरन दिखीस न्यायपालिका कोती। उहू हथियार धरके बइठे रिहीस। जातेच साठ दिमाग ल नंगा लीस , सोंचे झिन सकय कहिके। जेल म डारे बर धरत रिहीस। बड़ मुसकिल ले परान छोड़ा के पल्ला भागेंव चउथा स्तम्भ कोत। उहू कमती खतरनाक नि रिहीस। मोर आए के अगोरा म रिहीस एमन। जइसे पहुंचेंव तइसे, देख झिन सकय, सुन झिन सकय, कहिके, आंखी अऊ कान ल काट के अपन झोला म धर लीन।
मय पूछेंव, एमन का करही तोर अंग मन ला ? जेमन मोर गोड़ ल राखे हावंय, तेमन जनता ल गुमराह करत बतावत फिरथें के देखव हमन अपन गोड़ म नि रेंगन, ओकर गोड़ अऊ ओकरे बताये रद्दा म रेंगथन। इही मन मोर नाक ल कटवा के, अपन नाक म लगवाके, अपन नाक ल ऊंच करके घूमथें। जेमन मोर हाथ ल धरे हे , तेमन कहिथें के ओकरे हाथ ले हमन जनता बर काम करत हन। मोर दिमाग लुटइया मन मोरे दिमाग ले हमर कारज चलत हे कहिके, डंका बजावत फिरथें। अऊ आखी कान लेगइया मन , जनता ल ये कहिके भरमाथे के, हम ओकरे आखी कान के हिसाब ले अपन कलम ल चलाथन।
अइसन म तोर अऊ कन्हो अंग ल लेगे बर आ जही तब ? तब ये गरीब के कुटिया म तैं कइसे सुरकछित रहि सकबे ? एमन तोला आके मार डारही तब ? हा…… हा……ह……। अभू तक हमर देस के ये चारों खम्बा के कन्हो नायक, गरीब के कुटिया के डेरौठी म अपन गोड़ ल नि मढ़ाए हे। अऊ अवइया समे म घलो नि मढ़ाये। त एकर ले सुरकछित जगा कती करा हे, तिहीं बता ? रिहीस गोठ बात मोर जिये मरे के, मय उंहे जिंदा रहि सकथंव जिंहा गरीब भुखहा मोर पेट भरय। जिहां उघरा नंगरा किसान मोर तन ढंकय। फुटपाथी मजदूर मोला अपन करा रेहे के जगा दय। अभू हांसे के पारी मोर अइस …. जेमन अपनेच बर नि कर सके, तेमन तोर का बेवस्था करहीं। खुद महामुसकिल ले जइसे तइसे अपन जिनगी ल पोहाथें, तोला काये जिंदा राखिही ? इही सचाई ल सवीकारना बहुत मुसकिल हे बाबू ….। इंकर तीर सच, अहिंसा, भाईचारा अऊ ईमान के हावा बोहावत हे। इही हावा मोला जिये बर उरजा देथे। अऊ जब तक हतियारा मन के गोड़ के धुर्रा , इंकर डेरौठी म नि परही, तब तक मोला कन्हो तकलीफ निये। मय तभू तक अराम से जिंन्दा हंव।
अब तो बता दव तूमन कोन अव ? अतका दुखड़ा सुनाये के पाछू मय सोंचेंव तैं जान गे होबे। इहां इहीच समसिया हे, जनता मोला सुरकछित जरूर राखे हे, फेर, जाने निही मय कोन आंव तेला…. । पांच बछर म जब जब मउका मिलथे त, सिरीफ एक घांव , मोर जिये के परमान देखा देतीस , त उही समे, मोर सरी अंग फेर वापीस जाम जतीस, अऊ तब मोर ताकत ले, देस के दसा घला सुधर जतीस। मिही ये देस के लोकतंत्र आंव बाबू , जे तीन कोरी छै बछर पहिली अमीर मन के कोठी म जनम धरे रेहेंव, जेला होते साठ घुरवा म फेंक दिन। मोला जिंदा रखे के, पाले के पोसे के अऊ कन्हो परकार ले सुरकछित राखे के पक्का इंतजाम गरीब, बेबस, लचार मनखे मन करत हांबय। वइसे हतियारा मन मोला जान सम्मेत मार घला देना चाहथें, फेर मोर मरे के घोसना नि चाहें। काबर मोरे नाव ले इंकर दुकान बिना कन्हो बिघन बाधा के जोरदार चलथे अभू घला। जेन घुरवा म मोला फेंकिन, वो घुरवा के दिन बहुरगे, फेर मोर कब बहुरही …… सुसके के अवाज आए लागिस। मय अभू तक गुनत हंव का वाजिम म, हमू मन घला लोकतंत्र के दुरदसा बर जिम्मेदार हन …….।

हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन
छुरा