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कविता

महतारी भासा

मातृभासा म बेवहार ह बसथे,
इही तो हमर संसकार ल गढथे।
मइनखे के बानी के संगेसंग,
सिक्छा म वोकर अलख ह जगथे।

लईकोरी के जब लईका रोथे,
इही भाखा के बोल ह फबथे।
आगू आगू ले सरकथे काम,
महतारी के घलो मान ह बड़थे।

समाज के होथे असल चिन्हारी,
भासा म जब हमर संसकिरती ह रचथे।
सकलाइन एके ठऊर म त,
एकजुटता के भावों ह पनप थे।

नवा पीढ़ी के मइनखे मन,
घरघुन्दिया असन मिन्झारत हे।
अंतस म बसे भाखा के मया ल,
हंसी ठिठोरी करत बेंझावत हे।

महतारी भासा के भाव ल समझव,
कोनों उदिम करव बचाय बर।
गम्भीरता ले सोचव तुमन,
येकर मान बढाय बर।

विजेंद्र वर्मा ‘अनजान’
नगरगाँव (धरसीवां)
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