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कविता

माटी हा महमहागे रे

गरजत घुमड़त, ये असाढ़ आगे रे।
माटी हा सोंध सोंध महमहागे रे॥
रक्सेल के बादर अऊ बदरी करियागे,
पांत पांत बगुला मन सुघ्घर उड़ियागे।
कोयली मन खोलका म चुप्पे तिरियागे,
रूख-रई जंगल के आसा बंधागे।।
भडरी कस मेचका मन, टरटराये रे।
माटी हा सोंध सोंध महमहागे रे ॥
थारी सही खेत हे, पटागे खंचका-डबरा,
रात भर जाग बुधु, फेंकिस खातू कचरा।
कांदा बूटा कोड़ डारिन, नइये गोंटा खपरा,
मनसा हा खेत रेंगिस, धरके धंउरा कबरा॥
कुसुवा-टिकला के घांटी, घनघनागे रे।
माटी हा सोंध सोंध महमहागे रे॥
गुरमटिया सुरमटिया माकड़ो अऊ सफरी,
नवा किसिम बीजा घला, धर ले नोनी जुगरी।
कमियां मन खोज धरिन, अपन अपन खुमरी,
नागर जूड़ा जोता अरिहा, धरव चलव कुबरी॥
कुकरा हा बांग दे दिस, बेरा पंगपंगागे रे।
माटी हा सोंध सोंध महमहागे रे॥
खेतिहर उमिहागे, मिटिस जेठ के उदासी,
डोकरा छोकरा–छोकरी, मनटोरा हांसी।
गोंदली आमा चटनी , अऊ धरके बासी।
बहुरिया नावा खेत रेंगे, लागे थरथरासी॥
मुंधरहा ले नगरिया, मोर अगुवागे रे।
माटी हा सोंध सोंध महमहागे रे॥

गजानंद प्रसाद देवांगन
छुरा