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कविता

परमेश्वर के आसन

गांव-गांव पंचइती,
खुलगे बांचे खुल जाही।
अइसन सबे गांव हर ओकर,
भीतर झटकुन आही।।
गांव-गांव पंच चुनाही,
भले आदमी चुनिहा।
जेहर सबला एक इमान से,
थाम्हे घर कस थुनिहा।।
गांव के बढ़ती खातिर अब,
लंजावर कमती होही।
ओतके मिलही सफा बात ये,
जउन हर जतका बोंही।।
जतके गुर ततके मिठास कस,
जउन काम जुरहीं।
मिल के काम सबो छुछिंद हो,
एक मती हो कुरहीं।।
बनही, बात, बतंगड़ कमती-
धीरे-धीरे होही।
अलग चिन्हाऊ हो जाही जे,
फोकट कोनो ला बिटोही।।
पंच के पदवी पबरित हे,
ये परमेश्वर के आसन।
जे पद ले अन्नेत करँय,
छांटव अइसन बदमासन।।
न्यायी दूध अउ पानी कस,
जे अलग-अलग कर देवैं।
सबे चढ़इय्या एक चाहे-
डोंगहा जइसे खेवै।।
दुश्मन अउ सग बाप दूनू ला,
एक्के कस जे मानै।
न्याय करे के नेम धरम ला,
ओही मनई हर जानै।।
गांव के बढ़ती तभ्भे होही,
बनही अपन बनौकी
नहि तौ तिड़ी-बिड़ी मच जाही,
गड़बड़ होही गौकी।।
कहूं लबारन चन्ट घुसरगें,
पट्‌टा पूरही पक्का।
गाड़ी कहां ले रेंगे पाही,
उटपटांग जब चक्का।।
नीत अनित ला गुनहीं नहीं,
पछताही कर देहीं।
मुंह मा आन, पीठ पीछू मा,
जउने छुरिया टेंहीं।।
अइसन पंच, गाँव मा आगी-
लगा तान के सोहीं।
आमा फरही कहिके रस्ता म-
इन बमरी बोंही।।
इनकर ले बहॅचाव करे बर,
सावचेत हो रहना हे।
एही सगरदिन ले जुन्ना
पुरखन के भी कहना हे।।
तव भइया गांवे के हित मा,
नता सगा ला टारा।
भले आदमी नियत के सच्चा,
खोज के लेवा निकारा।।
एक बात अउ एक बाप,
एक्के भीतर बाहिर मा।
अइसे मइनखे ला जोजिया के,
लावा जग जाहिर मा।।
गांव के हित हर तभ्भे होही,
सुख सम्पत बढ़ जाही।
सब के ऑखी बढ़ती हर,
डग-डग ले चढ़ जाही।।
Shyam Lal Chaturvedi
जहां सुमत तहाॅ सम्पत नाना
गांव आय उतरही,
कुमत के कंकालिन हर दुरिहा,
देख-देख के जरही।।
एक माई कस पिल्ला होके,
सुख-दुख बांट के रइहा।
आन-तान के चक्कर छोड़ा,
झन बनिहा तूं बइहा।।

पं. श्यामलाल चतुर्वेदी
तिलक नगर, बिलासपुर
(दैनिक भास्कर ‘संगवारी’ ले साभार)
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