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संपादकीय

गुनान गोठ : पाठक बन के जिए म मजा हे




एक जमाना रहिस जब मैं छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार मन ल ऊंखर रचना ले जानव। फेर धीरे-धीरे साहित्यकार मन से व्यक्तिगत परिचय होत गीस। महूँ कचरा-घुरुवा लिख के ऊंखर तीर बइठे बर बीपीएल कारड बनवा लेंव। समाज म अलग दिखे के सउंख एक नसा आय, लेखन एकर बर सहज-सरल जुगाड़ आय। घर के मुहाटी भिथिया म दू रूपया चाउंर वाला नाम लिखाये के का रौब-दाब होथे, एला झुग्गी-झोपडी मुहल्ला म रहे ले महसूसे जा सकत हे। जइसन समाज तइसन उहाँ के अलग मनखे, मने विशिष्ठ व्यक्ति।

खैर, अलग दिखे बर, बन तो गयेंव साहित्यकार, कहाये लगेंव तमंचा.. फेर वोकर गुण-तत्व नई आ पाईस। समाज के मनखे, अपन गुण-तत्व कइसे बदलय? जइसे-तइसे संघर गयेंव, साहित्यिक जुरियाव म तको जाये लगेंव। पहिली लगय के मही भर मनखे आंव बाकी मन बौद्धिक आयं मने साहित्यकार। सुने रेहेंव के बौद्धिक मन, मनखे जइसे बहस-निंदा, खुसुर-फुसुर, जलनकुकड़ई नई करयं, वोला महसूस करथें अउ समाज के आघू अपन लेखनी के दरपन टांगथे। फेर धीरे-धीरे समझ म आ गए के जम्मो झन मनखेच आयं। अब मैं बीच म फदक गए हँव, न मनखे बन पावत हँव न साहित्यकार।

बड़ दिन बाद गम पायेंव, सुधि पाठक के साहित्यकार आन अउ साहित्यकार के साहित्यकार आन होथे। पाठक बन के जिए म मजा हे। आहितकार-साहितकार बने रहे म बाय हे।

© तमंचा रायपुरी