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कविता

पूस के जाड़

पूस के जाड़, पहाथे लटपट।
मोर कुंदरा म घाम, आथे लटपट।

मोर बाँटा के घाम ल खाके,
सरई – सइगोन मोटात हे।
पथरा – पेड़ – पहाड़ म,
मोर जिनगी चपकात हे।
गुंगवात रिथे दिन – रात,
अँगरा अउ अँगेठा।
सेंकत रिथे दरद ल,
मोर संग बेटी – बेटा।
कहाँ ले साल-सुटर -कमरा पाहूं?
तन चेंदरा म, तोपाथे लटपट।
पूस के जाड़ , पहाथे लटपट।
मोर कुंदरा म घाम,आथे लटपट।

मोर भाग दुख, अतरा होगे हे।
भोग-भोग के मोर तन,पथरा होगे हे।
सपना म सुख, घलो दिखे नही।
मोर भाग ल भगवान, बने लिखे नही।
कोरा म लइका, कुड़कुडाय पड़े हे।
खेलइया-कूदइया ,घुरघुराय पड़े हे।
56 भोग; 56 जनम म, नइ मिले,
पेट; पेज-पसिया म, अघाथे लटपट।
पूस के जाड़ , पहाथे लटपट।
मोर कुंदरा म घाम, आथे लटपट।

दिन बूड़त सोवा पर जथे।
बिहनिया ले आगी बर जथे।
सीत – कोहरा अउ धुंध।
मोर सपना ल देथे रुंध।
बघवा – भलवा के माड़ा हे।
मोर तन उँखर, चारा हे।
काटत रिथों गिन-गिन छिन-छिन,
आंखी म नींद, हमाथे लटपट।
पूस के जाड़, पहाथे लटपट।
मोर कुंदरा म घाम, आथे लटपट।

जीतेन्द्र वर्मा”खैरझिटिया”
बालको(कोरबा)
9981441795