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कविता

सक

‘‘मोर सोना मालिक,
पैलगी पहुॅचै जी।
तुमन ठीक हौ जी?
अउ हमर दादू ह?

मोला माफ करहौ जी,
नइ कहौं अब तुंह ल?
अइसन कपड़ा,अइसे पहिने करौ।
कुछ नइ कहौं जी,
कुछ नइ देखौं जी अब,
कुछू नइ देखे सकौं जी,
कुछूच नहीं,
थोरकुन घलोक नहीं जी।

तुमन असकर कहौ,
भड़कौ असकर मोर बर,
के देखत रहिथस वोला-वोला,
जइसे मरद नइ देखे हे कभू,
कोनों दूसर लोक ले आए हे जनामना तइसे………।

मोर राजा मालिक,
तुहर ऑखि के आघू,
कोनों माई लोगिन/मावा लोग आ जाथे कभू,
त तुमन देख लेथौ जी,
वोइसने देख लेत रहेंव जी महूॅ जी।

चलौ,
दूर होगे अब तुंहर एक सिकायत।
नइ देखौं जी अब कोनों ल,
देखेच नइ सकौं जी अब।

मैं नइ जानौं,
के ए ह एक्सीडेंट आवै के तुंहर इक्छा?
मैं एहू नइ जानौं जी,
के तुंहर देखे के लाइक हौं अब धन नहीं?
फेर,
मोला एक बात के भरोसा जरूर हे जी,
के खतम हो जाही अब,
तुंहर सक।‘‘
तुंहर नंदनी

केजवा राम साहू ‘तेजनाथ‘
बरदुली,कबीरधाम (छ.ग.)