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कविता

पांच चार डरिया

१. अनचिन्हार ल अपन झन बना, अपन ल तैं तमासा झन बना। अपन हर तो अपने होथे जी, अपन ल कभु दिल ले झन भगा।। २. ढ़ोगी मन बहकावत आय हे, बिस्वास ल जलावत आय हे। दागत हे जिनगी के भाग ला- गुरु-चेला ला बढ़ावत आय हे।। ३ जिनगी ह एक कीमती खजाना ये, खरचा […]